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Alvida Pyaar
उसने इंसारोफ को पत्र लिखना आरंभ किया, वह भी न बना । कागज पर लिखे शब्द या तो बेजान लग रहे थे या झूठे । उसने डायरी के अंतिम वाक्य के नीचे मोटी लकीर खींच कर उसे लिखना बन्द कर दिया । वह उस का अतीत था, मन में केवल भविष्य के विचार थे । उसे अपनी माँ के पास, जिसे कोई संदेह नहीं था, बैठकर दु:ख होता । लगता कि माँ को धोखा दे रही है, यद्यपि वह जानती थी कि उसने कोई पाप नहीं किया । उसे अपने पर गुस्सा आता, कभी–कभी मन होता कि सब से असली बात खुल कर कह दे । कभी सोचती, ‘वह मुझे यहाँ छोड़ क्यों गया ? उसने तो मुझे अपनी पत्नी कहा था । एकाएक वह सबसे कतराने और सब पर शक करने लगी, उँगलियाँ नचाने वाले उवर से भी । उसके आस–पास के लोग उसे बेरहम लगने लगे, यहाँ तक कि पालतू जानवरों की दृष्टि में भी शक और धुतकार का भाव दिखाई देने लगा, जैसे वे कहते हों कि तुम हमें छोड़ कर नहीं जा सकतीं । वह अपने में शर्म का अनुभव करती, सोचती कि सच में यह घर मेरा, देश मेरा ही तो है, किन्तु दूसरे ही क्षण हृदय के किसी कोने से पुकार आती, ‘नहीं अब यह घर और देश तुम्हारा नहीं है ।’ वह डर जाती और अपने डर पर झुँझला पड़ती । उसकी परेशानी बढ़ रही थी । क्या इसी बूते उसने इंसारोफ का साथ देने का वायदा किया था ? किन्तु एक सप्ताह बाद वह कुछ सामान्य हुई । उसने इंसारोफ’ को दो चिट्ठियाँ लिखीं और खुद ही उन्हें डाकखाने में छोड़ आयी । वह आशा कर रही थी कि इंसारोफ’ आयेगा–––लेकिन एक दिन सुबह इंसारोफ’ के बजाय निकोलोई अर्त्याेमेविच आ गया ।
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