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Andher
जब देश में अंधेरा गहराता जा रहा है तब ‘अंधेर’ उपन्यास लिखा जाना, एक गहरा अर्थ रखता है । शिव कुमार यादव के उपन्यास ‘अंधेर’ मेें देश के भोजपुर के ग्रामीण इलाके की कथा कही गयी है, जहां सामंती–वर्णवादी समाज के अवशेष मौजूद हैं । कथा का समय मोटे तौर पर सत्तर के दशक से लेकर बीसवीं सदी के अंतिम दशक का है । गरीब स्त्रियों के मर्यादा हनन, यौन हिंसा, यौनलोलुप धार्मिक पाखंडियों और उन्हें संरक्षण देने वाले प्रभुत्वशाली जातियों की सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक सत्ता के विरुद्ध प्रतिकार की परिस्थितियों का इसमें वर्णन किया गया है । प्रतिकार के लिए संगठित होते उत्पीड़ित लोगों पर बढ़ते हिंसक दमन के यथार्थ को भी उपन्यासकार ने दिखाया है । इसमें वास्तविक राजनीतिक संगठनों और सामंती जातिवादी निजी सेनाओं के नाम भी हैं । कुछ सामाजिक–राजनीतिक घटनाओं की छायाएं भी हैं, पर इनकी मौजूदगी ऐतिहासिक कालक्रम के अनुरूप नहीं है । वैसे भी यह इतिहास नहीं उपन्यास है और ग्रामीण समाज का जनतंत्रविरोधी ढांचा सिर्फ भोजपुर में ही नहीं है, गरीब–दलित स्त्रियों के साथ यौनहिंसा और उसके लिए जिम्मेवार जातिवादी–धार्मिक सत्ता के उत्पात आज पूरे देश में जारी हैं । यही वह सूत्र है जो उपन्यास को पूरे देश में व्याप्त अंधेर से जोड़ देता है । उपन्यास को पढ़ते हुए कवि विनय राय बबुरंग का एक गीत बरबस जेहन में कौंधता रहता है– माई रे माई बिहान होई कहिया, भेड़ियन से खाली सिवान होई कहिया ? उपन्यास के एक चरित्र महंत जिसे गांव की दबंग जातियों का शह हासिल है, वह आज के कारपोरेट बाबाओं का पूर्व रूप लगता है । पुलिस भी जरूर उन्हीं के साथ है, पर अंतर यह है कि जनदबाव में उसे उनके खिलाफ कार्रवाई भी करनी पड़ती है ।
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