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Atta Patta
नरेन्द्र अब पांचवीं कक्षा में था । वह शनै:–शनै: अपने आप में ही सिमटता जाता था । विद्यालय के बाद घर में ही घुसा रहता । बाहर के संसार से कटता जाता था । उम्र के उसी कठिन पड़ाव पर उसे एक नया मीत मिला । उसने न केवल उसका आंतरिक अकेलापन तोड़ा, वरन उसके लिए एक नए लोक का द्वार भी खोल दिया । वह आनंद–लोक था । उस नये मीत ने नरेन्द्र के जीवन को सुखों से भर दिया । उसकी आत्मा को जगाया । उसके अंदर सपने पैदा किये । उस मीत से मिलवाया हरिमोहन काका ने । उसका नाम था- किताब । मीत के रूप में जो पहली किताब मिली, वह प्रेमचंद की थी । उम्र की उस अरुणोदय–बेला में ही जीवन और जगत से उसका बाहरी तार टूट गया । प्रेमचन्द द्वारा रचे उस प्रतिलोक में वह एक बार जो घुसा तो फिर निकला ही नहीं । वह नींद में चलने वाले आदमी की तरह अपने सारे दैनंदिन कर्म करता । शेष समय पढ़ता रहता । नरेन्द्र के उस नये मीत ने उसके सारे अंत:सूत्र जीवन और जगत के साथ जोड़ दिए । उसे कूप से निकालकर सागर में पहुंचाया । उसके लिए एक नया स्वप्नलोक रचा ।––– - ‘अत्ता पत्ता’ से
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