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Bas Ek Rat
यह सोहल कहानियों का एक संग्रह है जो समाजिक मनोवैज्ञानिक सरोकार को इंगित करता है । छुआछूत एक अभिशाप है । जो कम हुआ है पर मिटा नहीं है । यदि हम दूसरों को भला सोचते और करतें हैं तो ईश्वर भी उसका भला सोचता और करता है । नशा एक सामाजिक बुराई है । युवा वर्ग भी इससे अछूता नहीं रहा है । सवर्ण–अवर्ण का भेद अनपढ़, रूढ़ीवाद करते तो समझ में आता है परन्तु कोई सवर्ण शिक्षक करें तो समीचीन नहीं । इससे भी बड़ा अचरण तब है जब अपना ही अपनों का दुश्मन हो । स्त्री परित्यक्ता है तो पुरुष भी कम परित्यक्त नहीं है । फर्क इतना है कि स्त्री अंधेरे से निकलकर प्रकाश में आ गई हैं जबकि पुरुष अभी अंधेरे में है । अब भी लज्जाशील कुलवन्ती स्त्री को ही मर है, बेहया की कोई मर नहीं है । बेटी, बाप की लाज“ है । लावंती बेटी पर हर बाप को नाज“ है ।
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