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Bhetaki
बच्चों को शमशाद काका से उलझना थोड़े ही था । वे जानते थे कि काका तो पानी के भीतर से उठते बुलबुलों को देखकर पहचान जाता है कि कौन सी मछली है वहाँ । ईल्सा, माँगूर, चीतोल और बाग्दा नाम भर के लिए मछलियों की प्रजातियॉं नहीं । किसी दिन कोई अमुक मछली से परिचय पा गया स्वाद का कोई शौकीन बताता कि उस दिन तो शमशाद ने गजब ही चीज खिला दी । शमशाद काका की आँखों में इतनी रोशनी थी कि पानी के अन्दर हिलती मछली को ऊपर से ही पहचान लेते । पानी के भीतर इधर से उधर इठलाते हुए तेजी से दौड़ रही ईल्सा का शिकार करने की ठान लें तो, बल्कि बल्छी की मार से ही शिकार को उलटा देते और पानी पर डोलते हुए दिखयी देती ईल्सा को देखकर किसी के भी मुँह से लार टपकने लगती । चिंगड़ी झींगा, मोचा झींगा, सीटा झींगा, जिनको कोई बहुत जानकार भी सिर्फ झींगा ही कहता, शमशाद काका तो बारिक अंतर से अपनी पहचान बदल लेती उन सभी मछलियों से वाकिफ था । बच्चों को कहता था, ’’दिघी के बीच वाले गाछ पर कभी ‘कोयी’ दिखी तो तुम लोगों को दिखाऊँगा ।’’ जिज्ञासाएं हों और सवाल न हो ? ऐसा मुमकिन ही नहीं था । कैसा है, कहाँ है शालिखा गाँव ? प्रदीप मण्डल का क्या रिश्ता है उससे ? न जाने कितने सवाल थे, जो किस्से की उत्सुकता के बवाजूद पीछा नहीं छोड़ते थे । लेकिन भेटकी का किस्सा सबसे ऊपर जगह पाता था । शमशाद काका की बल्छी की मार के निशाने भी बेकार थे भेटकी के आगे । बहुत साध कर लगाए गए निशानों पर भी भेटकी को पलट देने की सारी तरकीबें बेकार रहीं । हर किसी को पक्का यकीन हो गया कि काका ने भी भेटकी का नाम भर ही सुना है शायद, पहले कभी देखा नहीं । तभी शॉल और भेटकी में फर्क नहीं कर पा रहा और सिर्फ शॉल माछ ही पलटाता जा रहा है । एक ही बार में निशाना साध कर भेटकी को चपेट में क्यों नहीं ले पा रहा । अपने–अपने मन की बात हर कोई एक दूसरे से कहता रहा ।
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