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Fagun Ke Baad
लीलाधर पास आया । उसने बनारसी को बाँहों में समेट लिया । वह छुई–मुई– सी सिमट आयी । रोशनी गुल हुई । लीलाधर ने अपना मनचाहा पा लिया । उसे लिपटाकर चंटाई पर ही सो गया । बनारसी भी सो गयी । मन का साथ शरीर नहीं दे पाया था । मन तो कीचड़ से ऊपर कमल की भाँति निर्लिप्त था, स्वच्छ था, अनछुआ था । परन्तु अनुभवी युवा शरीर सम्पूर्ण भोग को जहर की भाँति नहीं, अमृत की भाँति ग्रहण कर गया । श्लथ–तृप्त शरीर सो गया । मन जागता रहा । दूसरे दिन सुबह जब नींद खुली तब तक लीलाधर जा चुका था । अलसायी–सी उठी थी बनारसी । खाने के बाद अकेली बैठकर सोचने लगी । अब क्या करेगी । सुगिया आये तो विचार हो । उसके आते ही खिल उठी बनारसी । सुगिया ताली दे–देकर गाने लगीµ “आरे बलमा मोरा बड़ा रंगरसिया, हो जी, अँचरा पकड़ि रस लेल गुइयाँ ।” -इसी उपन्यास से आज़ादी के बाद के पहले दस वर्षों के मिथिला की कहानी कहता है यह अनूठा उपन्यास । सपनीली आँखों में कच्चे सपने थे, पतझड़ के बाद नव मुकुलन की आस थी और था लोकतंत्र के प्रति गहरा विश्वास । उपन्यास की भाषा परदर्शी है, यही लेखिका की विशेषता है ।
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