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Ganga Sakshi Hai

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2021
978-93-89191-72-1

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कैसी थी वह भूमि! जमीन पर गड़े त्रिशूल पर रखा खप्पर! पास में ध्यानस्थ सिद्ध । मुंडमाला पहने साधु अपने में लीन । सामने रखे कुंड में धधकती आग । लाल–लाल नेत्र, लाल सिंदूर, लाल वस्त्रधारी सिद्ध किससे बात कर रहा था ? उसके सामने कोई अदृश्य आकृति थी या वह शून्य में ही अपने देव के दर्शन कर रहा था ? वह हाथ हिलाकर कुछ बोलता था और फिर रुककर कुछ सुनता था, मानो कोई उसे प्रत्युत्तर दे रहा हो । वार्तालाप चल रहा था एक तांत्रिक और उसके इष्ट के बीच । एक अन्य साधक धूनी रमाए हवन कुंड में समिधा डालता मंत्र पाठ के साथ अग्नि में आहुति देता जा रहा था । जयकार करता हुआ नशे में झूम रहा था । मेरी आंखों में भय था । यह मैं किस जगह आ गया हूं ? मां को पता चला, तो क्या होगा ? इस भय के साथ–साथ ऐसा लग रहा था मानो कोई मुझे उस जगह ले जा रहा है । मेरे मन में था कि मैं स्वयं थोड़े ही आया हूं, मैं अपनी मां के आदेश की अवहेलना क्यों करूंगा ? मैं तो एक जगह बैठना चाहता हूं । मुझे इस जगह कोई और ले कर आया है । हवा में फैली गुग्गल–लोबान की गंध सिंदूर–रोली की गंध में घुल–मिल गई थी । ‘बच्चा!’ एक बाबा ने पुकारा, ‘कहां घूम रहा है ?’ ‘सिद्धपीठ में ।’ मैंने उत्तर दिया । ‘किसी ने भेजा है ? तेरे साथ कौन है ?’ ‘मेरे साथ ?’ एक पल को सोचना पड़ा । होश में आया । ‘मां! मेरे साथ मां है ।’ ‘यहां हर ओर मां ही मां है ।’ तांत्रिक ने ऊंची आवाज में कहा, ‘आ, तुझे प्रसाद दूं । मां के सानिध्य का प्रसाद ले ।’ मैं बंध गया था उस साधना से । प्रसाद तो चाहिए ही, अब यहां तक आया हूं, तो खाली थोड़े ही लौटूंगा ? मैं जमीन पर बैठने ही वाला था कि मन में किसी ने लताड़ा, ‘चल भाग यहां से । दर्शन तक नहीं करा है काली का और प्रसाद लेने आ गया! पहले दर्शन तो कर ले धीरज ।’ (इसी पुस्तक से)

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