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Mujhe Kuch Kahna Hai

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2016
978-93-85450-58-7

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भारतवर्ष अपने वर्तमान स्वरूप में इतनी अधिक विविधताओं से भरा हुआ महादेश है कि इसमें सभ्यता की आदिम अवस्था से लेकर उत्तर आधुनिक अवस्था तक को एक साथ देखा जा सकता है । खास तौर पर यदि हम वनवासी समुदायों को निकट से देखें तथा उनके जीवन–संघर्ष को समझने का प्रयास करें तो कबीलाई सभ्यता से चलकर ग्राम सभ्यता और फिर नगर सभ्यता के विकास के विवि/ा चरणों के लोक–इतिहास को सहज ही परिलक्षित कर सकते हैं । इसी के साथ, शिक्षा और विकास के समांतर मनुष्य के हाथ से रेत की तरह भोलेपन और आनंद की संपदा का फिसलते–रिसते जाना भी एक ऐसा विषम यथार्थ है जिसे नकारा नहीं जा सकता । वनवासी समुदाय प्रकृति के सामीप्य के बावजूद कई प्रकार की विसंगतियों के भी शिकार दिखाई देते हैं, आर्थिक–राजनैतिक शोषण तो है ही । ‘मुझे कुछ कहना है’ शीर्षक अपनी औपन्यासिक आत्मकथा में डॉ– रामनिवास साहू ने इन सब सामाजिक परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में छतीसगढ़ के एक वनवासी अंचल के परिवेश, संघर्ष, सौंदर्य और विद्रूप को रेखांकित करने का सफल प्रयास किया है । लेखक ने इस अंचल को किसी जिज्ञासु पर्यटक या खोजी पत्रकार की दृष्टि से बाहर–बाहर से नहीं देखा है, बल्कि वह इस अंचल का निवासी होने के कारण इसके सारे सुख–दु%ख का स्वयं भोक्ता है । अत% इसकी प्रामाणिकता असंदिग्ध है । सभ्यता की दौड़ में पीछे छोड़ दिए गए हाशियाकृत अंचल से संबद्ध लेखक के मन की छटपटाहट का एक कारण इस द्वंद्व में भी निहित दीखता है कि वह विकास तो चाहता है पर इसके लिए निसर्ग की बलि देना उसे स्वीकार नहीं । आशा है, साहित्य–जगत इस वनवासी विमर्श का स्वागत करेगा, इसमें शामिल होगा । प्रो– देवराज अंतरराष्ट्रीय हिंदी वि– वि–, वर्धा

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