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Namvar Singh : Pratinidhi Nibandh
एक आलोचक, चिंतक, शिक्षक और बुद्धिजीवी के रूप में नामवर सिंह की उपस्थिति किसी आश्चर्य की तरह थी जो अपने हरेक रूप में उत्कृष्टता और परिपूर्णता की उंचाई को छूती थी, जिससे आप प्रभावित हुए एवं उनका प्रशंसक बने बिना रह नहीं सकते। वे अपनी बुद्धिजीविता का लोहा ऐसे नहीं मनवा लेते थे, उसके पीछे उनका लंबा संघर्ष, उनकी बेजोड़ प्रतिभा और साथ ही हमेशा वह तैयारी दिखती थी, जिसके लिए वे जाने जाते थे। जिस लोक संस्कृति वाले ग्रामीण पृष्ठभूमि की सहजता से वे जटिल आधुनिकता वाली संस्कृति के शहर में पहुंचे थे, फिर भी उस सहजता को बरकरार रखा, यद्यपि संघर्ष भी कम नहीं थे। पर इस लोक की सहजता ने उन्हें विपरीत परिस्थितियों में भी असहज नहीं होने दिया। सहजता जैसे जीवन का अंग बन गई थी। जीवन का संघर्ष और अनुभव बहुत कुछ सीखाता है, समझ, सलाहियत और परिपक्वता से परिपूर्ण बनाता है। स्वंय एवं अन्य की सीमाओं का बोध भी कराता है। सहजता तमाम सीमाओं से उबरने में मदद करती है। आत्म संयम सहजता नहीं है उसे भी सहज होना होता है। सृष्टि का हर मानवीय व्यापार और व्यवहार सहजता की मांग करती है। यह कृषि सभ्यता वाले लोक से अर्जित अनुभव है जो सुख-दुख, हर्ष-विषाद, अमीरी-गरीबी, सब कुछ को समान भाव से सहज कर देता है। काम भी वही आता है। सहजता लोक की विशिष्टता है और स्वाभाविकता उसका व्यवहार या आचरण । लोक की सहजता ज्ञान को भी सहज बना देती है। नामवर जी ने ज्ञान को सहेजा हीं नहीं था उसे सहज बना लिया था- 'चढ़िए हाथी ज्ञान को सहज दुलीचा डाल।' संतों और अपने गुरु की तरह। आखिर वह शास्त्रीय नहीं, लोक-दृष्टि थी, जो अपनी परंपरा और परिवेश से प्राप्त थी। जिसकी निरंतरता को आधुनिक युग की औद्योगिक संस्कृति ने अवरुद्ध किया। मैं केवल लोक के उन बिखरे अवशेषों की ओर इशारा कर रहा हूं जो आज भी हमारे सामाजिक, सांस्कृतिक ताने-बाने में नामवर सिंह: प्रतिनिधि निबंध |
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