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Paridhi (Nari Sashaktikaran Aur Unka Aatmaraksha Kavach)

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2019
978-93-87145-92-4

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वास्तव में मनुष्य जन्म से मृत्यु तक एक परिधि में रहता है । परिधि उसे तोड़ भी सकती है और उसे मुक्त भी कर सकती है । परिधि जब जड़ बनने लगती है तब व्यक्ति और समाज को उससे घुटन, कुण्ठा और पीड़ा का अनुभव होता है । जबकि परिधि को जन्म व्यक्ति और समाज ने निर्घात और सहज स्वतन्त्रता के उपयोग के लिए दिया है । परिधि साधन है, साध्य नहीं । परन्तु इस साधन का साध्य से कम महत्त्व नहीं है । यह समझ लेना और भी जरूरी है कि धीरे–धीरे समाज का एक विशेष वर्ग ऐसी कोशिश करता है कि जिससे परिधि दूसरों के लिए गले का फन्दा बन जाती है और उसके लिए ऐशो–आराम का रास्ता । जैसे–जैसे यह फासला बढ़ता जाता है वैसे–ही–वैसे तनाव ऐंठता है, वर्जनायें सिर उठाती हैं और अंगारे भड़क उठते हैं । सिर उठाने और सिर कुचलने की निरन्तर होने वाली आवृत्ति धुआँ और आग दोनों को फैलाती जाती है । कभी–कभी इसका परिणाम यह होता है कि समाज में धुआँ किसी खतरनाक गैस के रिसाव–सा फैलता जाता है और व्यक्ति का जीना दूभर हो जाता है । माना कि अभी स्थिति की शुरुआत है परन्तु हो सकता है । जब सायरन बज उठते हैं तब अदृश्य दैत्याकार के दबोचने की अनुभूति होने लगती है । इससे मानस के चित्रफलक पर अविश्वास, अनास्था और त्रासदी के बिम्ब–प्रतिबिम्ब फूत्कार उठते हैं किसी संघातित सर्पिणी से । पर क्यों ? क्या इस त्रासदी से बचा नहीं जा सकता है, जो हर बार मनुष्य की आँख से धूल झोंककर उसे अन्तत: अन्ध–कूप में ढकेल जाती है ?

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