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Pratinidhi Nibandh : NandKishore Aacharya
नन्दकिशोर आचार्य मूलतः कवि भी हैं। वह अज्ञेय द्वारा सम्पादित 'चौथे सप्तक' में संकलित कवि के रूप में प्रसिद्ध हैं। अज्ञेय के साहित्य से उनका रिश्ता बहुत आत्मीय रहा। हाँ, साहित्य विषयों पर बहुत सारी जगहों पर आचार्य अज्ञेय से असहमत भी होते हुए देखे जाते हैं तो कुछ विषयों पर सहमत भी। अज्ञेय के परम्परा और आधुनिकता जैसे विषयों पर आचार्य पूरी तरह अज्ञेय के साथ खड़े नजर आते हैं। इसी तरह 'अज्ञेय की काव्यतितीर्षा' आलोचना पुस्तक लिखकर आलोचना धर्म का परिचय दे दिया था। इस तरह कह सकते हैं कि एक आलोचना के रूप में पहला सरोकार एक कवि के रूप में सर्वोच्च स्थान पर देखने को मिलता है। आचार्य साहित्य को एक स्वायत्त विद्या मानता है। मतलब यह है कि साहित्य अपना सत्य स्वयं निर्मित करता है वह किसी दूसरी विद्या से प्राप्त सत्य को स्वीकार नहीं करता है। आचार्य लिखते हैं कि- "साहित्य स्वयं प्रमाण है और उसकी अपनी प्रक्रिया ही उसकी परख की एक मात्र कसौटी हो सकती है।" आगे पुनः लिखते हैं-किसी साहित्यिक कृति में प्रस्तुत यथार्थ यदि कलात्मक विश्वसनीयता अर्जित कर पाता है तो फिर उसे अपना औचित्य या महत्त्व सिद्ध करने के लिए किसी बाह्य प्रमाण की जरूरत नहीं रहती... जब हम सामान्य तौर पर अंधविश्वास मानी जाने वाली बहुत-सी बातों या अवैज्ञानिक मान्यताओं और फैंटेसी के आधार पर रचे गये साहित्यिक यथार्थ को स्वीकार करते और उससे वास्तविकता की हमारी समझ का विस्तार कर रहे होते हैं तो क्या यह स्पष्ट नहीं हो जाता कि साहित्यिक यथार्थ की परख किसी बाध्य यथार्थ के आधार पर नहीं की जाती बल्कि, साहित्यगत यथार्थ का हमारा बोध यथार्थ के हमारे समूचे बोघ का विस्तार करता और इस प्रकार मानवीय चेतना के अनुद्घाटित आयामों को उजागर करता है।"
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