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Punarbhava

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2013
978-81-90819-73-2

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दो किशोरियों ने वस्त्र की चलती–फिरती दीवार बना ली जिससे होकर सुभद्रा भींगे शरीर बाहर हुई और एक विशेष शिविर में चली गयी । युवराज ने तत्काल एक और चित्र बनाना शुरू किया और सुभद्रा जैसे ही शिविर से नये वस्त्र–विन्यास में बाहर निकली, युवराज द्वारा तुरन्त बनाये चित्र–पट को देख ‘‘नहीं” की चीख के साथ पीछे लौट गयी । उसके साथ खड़ी किशोरी ने उस चित्र–पट को अपने शरीर के एक वस्त्र के टुकड़े से ढँक दिया । शिविर से पुन: निकल कर उसी किशोरी ने आचार्या के पास जाकर निवेदन किया कि सुभद्रा इस प्रकार की प्रतिस्पर्धा नहीं चाहती हैं । वे वाद–विवाद यहाँ तक कि अस्त्र–संचालन जैसी प्रतिस्पर्धा में भाग ले सकती हैं । आचार्या ने जब कारण जानना चाहा कि उनकी शिष्या को चित्र कला से चिढ़ कैसे हो गयी । उन्होंने उस चित्र को लाने को कहा और शीघ्र ही उस चित्र को देखते ही आचार्या आश्चर्य–मिश्रित प्रशंसा से मन ही मन प्रभावित हुई मगर ऊपर से कुछ बोली नहीं । चित्र सुभद्रा का था जिसने नाग के चित्र को सच मान कर नदी–जल से सिर निकालते ही भयभीत मुद्रा में डुबकी लगा दी । चूँकि युवराज तो नदी तट पर ही खड़े थे, उन्होंने किशोरी के शरीर को जल के ऊपर और अन्दर, दोनों में देखा था । उस चित्र में सुभद्रा के उसी रूप को चित्रित किया था । इसे सुभद्रा सह न सकी और अब प्रतिस्पर्धा की ज्वाला में यौवन का प्रदर्शन मानो आग में घी बन बैठा था । आचार्या ने जिस कठोर अनुशासन और योग–विद्या की परिधि में किशोरी सुभद्रा को शिक्षा दी थी, उसने मदमत्त यौवन को तपश्चर्या और ब्रह्मचर्य के घेरे में वैसे ही बन्द कर रखा था जैसे नारियल की भीतरी मिठास को ऊपर की ऊसर एवं कठोर त्वचा घेरे रहती है । आज आचार्या ने भी अनुभव किया कि स्वयं वह एक विवाहिता नारी होकर भी पति–वियोग में उसी प्रकार मांसल सौन्दर्य से दूर तपस्विनी जैसी रह रही है जिसका सुभद्रा पर स्पष्ट प्रभाव पड़ा है । इस अनुभूति ने श्यामा को अपूर्णता एवं अधूरेपन से पुन: अभिभूत किया । -इसी पुस्तक से

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