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Satava
‘सतवा’ एक ऐसा शब्द है, जिसे सुनकर ही मन वितृष्णा से भर जाता है । जी का स्वाद कड़वा हो जाता है । परन्तु, इस उपन्यास में एक ऐसे सतवा माँ की कहानी है, जिसने अपने सतवा पुत्र को अपने सगे पुत्र से भी अ/िाक प्यार ही नहीं बल्कि उसे प्राण की रक्षा के लिए अपने प्राण की बाजी लगा देने में तनिक नहीं हिचकी । माँ तो माँ होती है, सगी हो या सतवा । सतवा शब्द जोड़कर आज का समाज इसे घृणा का पात्र क्यों बनाती है । सब कुछ जाने बिना ही उस एक शब्द को परख लेना कौन सी किताब में लिखा गया हैं, कहाँ का नियम है कि बचपन से ही बच्चों की कहानियाँ या समाज की सोच में सतवा माँ की छवि क्रूर या अत्याचारी बतायी जाती है । ‘सतवा’ में ठीक इसके विपरीत माँ द्वारा इतना ही प्यार मिला जितना सगी माँ करती है । समाज में लोग अपने या सतवा हो सकते हैं पर प्यार कभी सतवा नहीं होता । माँ का प्यार तो बस प्यार होता है । निश्छल और निराकार, कभी अपनों से मिल जाता हैं, कभी सतवा से । —सौरभ सुमन
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