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Sona Aur Khoon (4 Vol.)
सोना और खून का अर्थ है पूंजी और युद्ध । सोना और खून दस भागों और साठ खण्डों में कोई पांच हज़ार पृष्ठों का उपन्यास है । उसके प्रथम भाग के चार खण्ड आपके हाथ में हैं । प्रथम भाग के चार खण्डों में यूरोप की जन–क्रान्ति, पूंजीवाद और राष्ट्रवाद का विकास और भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के अमल के व्याख्यापूर्ण रेखाचित्र हैं । साथ ही जिस उद्योग–क्रान्ति से प्रेरित हो यूरोप, खासकर इंग्लैंड विश्व का नेतृत्व करता जा रहा था, उसकी पृष्ठभूमि भी है । इस दृष्टिकोण को व्यक्त करने के अभिप्राय से मैंने कथा–प्रसंग को कहीं–कहीं उलटकर पीछे से लिखा है । इस उपन्यास में मेरी दृष्टि उपन्यास–तत्त्व की स्थापना करने की प्रमुख नहीं है । प्रमुख दृष्टि मध्यम श्रेणी के साधारण पढ़े–लिखे भारतीय जनों के समक्ष भारत से यूरोप के सम्पर्क, उसका भीतरी–बाहरी सांस्कृतिक और आर्थिक प्रभाव वर्णन करना है । समूचे उपन्यास के साठ खण्डों में अंग्रेज़ों के भारत में आने और यहां से जाने तक के विवेचनात्मक इतिहास की पृष्ठभूमि में जन–क्रांति का इतिहास है, जो अन्यत्र प्राय% एकत्र मिलना दुर्लभ है । इस उपन्यास के लिखने में मुझे बहुत–से ग्रन्थों का अध्ययन करना पड़ा है । पाठकों का ध्यान रखकर मैंने इसकी भाषा अधिकांश में सरल उर्दू मिश्रित रखी है । कहीं–कहीं आवश्यकता होने पर शुद्ध उर्दू ही रखी गई है । उपन्यास के इस प्रथम भाग के चारों खण्डों में मैंने तीन नकारों की स्थापना और व्याख्या की है 1– क्या भारत को अंग्रेज़ों ने जीता ? नहीं । 2– क्या 57 की क्रान्ति राष्ट्रीय भावना पर आधारित थी ? नहीं । 3– क्या वर्तमान स्वतन्त्रता–प्राप्ति पर उस क्रान्ति का प्रभाव है ?नहीं । निस्संदेह ये तीन नकार विचारणीय हैं । बहुत मनीषियों के विचारों से इनका मेल नहीं, परन्तु मैं आशा करता हूं कि पाठक धैर्यपूर्वक मेरे इस उपन्यास में स्थापित आधारों का अध्ययन करेंगे । उपन्यास में राष्ट्रवाद का उदय और उसका विश्व पर प्रभाव भी वर्णित है, वह भी मनन करने योग्य है । _चतुरसेन
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