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Taarini
आज संपूर्ण बचपन संकटग्रस्त है, पर बच्चियों की पीड़ा उस समय असहनीय हो जाती है, जब वे किसी शोषण का शिकार होती हैं या फिर समाज में भूखे भेड़ियों की बढ़ती तादाद के चलते स्वयं को नितांत असुरक्षित महसूस करती हैं । घर, पड़ोस, सड़क और विद्यालय तक में बालिका सुरक्षित नहीं है । ऐसे में उनके माता–पिता और अभिभावकों की चिंता स्वाभाविक है कि सिर पर हर समय दहशत की लटकती हुई तलवार लेकर बच्चियाँ कैसे जियें, कब तक जियें ? उनकी रातों की नींद और दिन का चैन तबाह हो जाता है । इन बच्चियों के भय और तकलीफ’ का बयान भी कलम के लिए आसान नहीं । उस वक्त और भी, जब समस्या से माँ का सामना तो हुआ ही हो, बेटियों को भी दुर्भाग्यवश साक्षात्कार करना पड़ जाए । ऐसे में सर्जक–मन कभी–कभी सवालिया हो उठता है कि मासूम बच्चियों की पीड़ा को कलम द्वारा उकेरना क्या हृदयहीनता नहीं ? पर लेखकीय दायित्व के चलते समाज को आईना दिखाना जरूरी भी तो है । सचमुच बहुत मोहक और अबोध होती हैं नन्ही कोपलें । उन्हें घरों में खेलते देख लीजिए, सड़क पर बस्ता लिए स्कूल जाते देख लीजिए, सखी–सहेलियों के बीच हँसते–खिलखिलाते देख लीजिए, मन में एक गहरी पुलक और संतुष्टि भर जाती है । पर यही बच्चियाँ जब किसी हैवानियत का शिकार होती हैं, असुरक्षित जीवन के चलते पल–पल भय के साए में जीती हैं, तो हर संवेदनशील मन जानना चाहता है कि उनकी यह यंत्रणा आखिर कब तक ?
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