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Uttarakhand : Haal-Behaal
इस पुस्तक के आलेखों को पढ़कर उत्तराखण्ड की असली तस्वीर उभरने लगती है । अपूर्व ने घनघोर आर्थिक तंगी के दौर में अखबार बन्द नहीं होने दिया । कर्ज ले–लेकर अखबार निकालते रहे, जन सरोकार की पत्रकरिता से आज तक जुड़े रहे और बड़े धूमधाम से जोखिमों को उठाते रहे हैं, किसी विकट परिस्थितियों से समझौता न करने का संकल्प भी लेते रहे । संभवत ऐसा इसलिए भी वे साहित्य से गहरे जुड़े रहे हैं । लेखक अपने सम्पादकीय में एक तरफ गांधी, लोहिया और जेपी के ‘मंतर’ को बांचते हैं । कभी रहीम, कबीर, दिनकर, अदम, नागार्जुन, धूमिल जैसे क्रांतिकारी कवियों को उद्धरित करते हैं । कभी मार्टिन किंग लूथर, अल्बेयर कामू, अमेरिकी पत्रकार हंटर स्टाकटन को कोट करते हैं, कभी स्कूली जीवन के अपने अध्यापक उमाकांत द्विवेदी का स्मरण करते हैं । लेखक के लेखन में एक खास तरह का ओज प्रतिबिंबित होता है । उम्मीद है पाठकों को ‘उत्तराखण्ड : हाल–बेहाल’ में संकलित आलेखों को पढ़कर प्रदेश के वास्तविक समस्याओं से रू–ब–रू होने का अवसर मिलेगा । उत्तराखण्ड के समाज, संस्कृति और राजनीति को समझने का एक ठोस नजरिया भी हासिल हो पाएगा । इस किताब को पढ़कर अनोखा सुकून मिलेगा । नि:संदेह अभी तक पत्रकारिता का अंत नहीं हुआ है और न ही पत्रकार की मौत! -पंकज शर्मा सरकार चाहे भाजपा की रही हो या फिर कांग्रेस की, हम हमेशा निशाने पर रहे हैं । पिछले तेरह साल इसी सब में बीत गए । अब लगता है इसमें कितनी सार्थकता रही ? क्या वाकई हमारे चलते कुछ भ्रष्टाचार में कमी आई ? क्या इन तेरह बरसों में राज्य में कुछ अच्छा हुआ ही नहीं ? क्या वाकई अलग राज्य गठन के पश्चात हमारे यहां हालात बिगड़े ही बिगड़े ? कहीं कुछ सुधरा नहीं ? और यदि कुछ अच्छा हुआ तो वह हमें क्यों नहीं दिखा ? दिखता है ? हमारे यहां प्रकाशित नब्बे से पंचानबे प्रतिशत समाचार भ्रष्टाचार, अत्याचार या अनाचार से संबंधित होते हैं । यहां तक कि राजनीतिक समीक्षा भी वैचारिक कम किसी की खाल उधेड़ती ज्यादा होती है । निश्चित ही बतौर पत्रकार यह हमारा फर्ज बनता है कि हम हर जुल्म, हर भ्रष्टाचार, अत्याचार या अनाचार के खिलाफ उठने वाली आवाज को स्थान दें । इसे लेकर मुझे कोई संशय नहीं । संशय है सार्थकता को लेकर । ऐसा कर हम क्या कुछ हासिल कर पा रहे हैं ? सत्ता प्रतिष्ठानों के खिलाफ लिखने की सजा विज्ञापनों के न मिलने अथवा उनका भुगतान न होने से मिलती है । किसी भी पत्र–पत्रिका के लिए कमाई का जरिया केवल और केवल विज्ञापन ही होते हैं । ऐसे में जाहिर है पिछले तेरह सालों से हम लगातार इस समाचार पत्र का प्रकाशन अपने बलबूते पर करते आ रहे हैं, यदि मेरा अन्य व्यवसाय न होता तो शायद यह अखबार कभी का बंद हो चुका होता । -इसी पुस्तक से
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