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75 Kavitayen : Rajkamal Chaudhary
राजकमल चौधरी की सूक्ष्म दृष्टि इन सारी स्थितियों की गहन छान-बीन कर रही थी। सन् 1960 आते-आते उनके धैर्य की सीमा टूट गई। तब तक नई कविता स्थापित और सर्वस्वीकृत हो गई थी। फिर भी उन्हें प्रभाव के स्तर पर बहुत कुछ भला नहीं लग रहा था। आजादी के तेरह वर्षों बाद भी भारतीय जनता का जीवन सहज नहीं हो पाया था। कांग्रेसी राजनीतिज्ञों के तिकड़मों से संचालित शासन-तन्त्र में विकास और लोक-तन्त्र की मूल स्थापनाओं के सारे सूत्र थोथे दिख रहे थे। लोकतन्त्र एवं समाजवाद की पक्षधरता के नारों और साम्राज्यवाद के प्रति रहस्यमूलक आकर्षण के नग्न यथार्थ को तो वे छठे दशक के प्रारम्भमें लिखी कविताओं एवं अन्य रचनाओं में उद्घाटित कर चुके थे। सन् 1960-61 के आस-पास यथार्थभोग की तीक्ष्णता इतनी वेधक हो गई कि स्थापित काव्यधारा की सीमा लांघकर, उन्हें 'अकविता' की ओर रुख करना पड़ा। बाद के दिनों में कुछ लोगों ने इसमें दृष्टिकोण की अस्थिरता, प्रदर्शन की भंगिमा, भूखी और आहत पीढ़ी के प्रभाव के प्रति स्वीकार-अस्वीकार का द्वन्द्व देखकर, इस कविताधारा की अकाल मृत्यु की घोषणा कर दी; लेकिन सच है कि नई कविता की सीमाबद्ध दृष्टि के बाद आविर्भूत इस कविता आन्दोलन ने हिन्दी साहित्य में खूब धूम मचाई।
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