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75 Kavitayen : Trilochan
त्रिलोचन जी ने दुख और आपदाओं की मार अपनी सानेट-सी कसी हुई फौलादी काठी से अधिक मन पर झेली थी। अपनी जिन्दगी के बारे में उन्होंने बहुत कुछ कहा है, जितना कहा है उससे अधिक अनकहा छोड़ दिया है, अब भी उनकी कहनी अनकहनी है। मुख्तसर यह कि "अपनी राह चला, आँखों में रहे निराला, मानदंड मानव के तन के, मन के, तो भी पीस परिस्थितियों ने डाला।" फिर भी त्रिलोचन ऐसी-वैसी मिट्टी के नहीं बने थे तुलसीदास और निराला की पुख्ता जमीन उनकी अपनी 'धरती' है। परिस्थितियाँ चाहे कितनी भी क्रूर रही हों, 'पर अभाव से दबे नहीं जागे स्वभावमय' त्रिलोचन को वे तोड़ नहीं सकीं। 'आरर डाल नौकरी है'- यह उनकी आप बीती है। नौकरियाँ एक पर एक छूटती गयीं पर साहित्य पर उनकी अछूट पकड़ और कसती गई। इसका प्रमाण है उनकी सुदीर्घ और अनवरत साहित्य-साधना । नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल और त्रिलोचन की कविता प्रगतिशील काव्य धारा की त्रिवेणी है। इसमें त्रिलोचन की पहचान एकदम निराली है। उनकी 'धरती' मार्च-अप्रैल 1946 में छपी। उसमें जहाँ-तहाँ रूमानियत और छायावादी पद-रचना के बावजूद त्रिलोचन की कविता की बहुतेरी विशेषताएँ-कहीं बीज रूप में, कहीं सुस्पष्ट देखी जा सकती हैं जिनका विकास आगे चलकर हुआ खासकर सब से अधिक सानेटों में जहाँ उनकी काव्यकला क्लासिकीय ऊँचाई पर पहुँची हुई है।
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