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Balmukund Gupt Ka Gadh Sahitya
हिन्दी साहित्य के वर्तमान स्वरुप का निर्धारण करने में नवजागरण काल का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। रूढियों का विरोध, उपनिवेशवादी मानसिकता की आलोचना, सामाजिक सुधार की चेतना, राष्ट्रीयता और मानव मूल्यों का संवर्धन आदि इस युग की केन्द्रीय प्रवृत्तियां रही हैं। नवजागरण काल की सभी मुख्य प्रवृत्तियां जिन लेखकों में रूपायित होती हैं उनमें अग्रगण्य बालमुकुन्द गुप्त जी का नाम है। बालमुकुन्द गुप्त भारतीय नवजागरण के पुरोधा, स्वदेशी और स्वराज्य के मंत्रद्रष्टा, स्वस्थ्य पत्रकारिता के यशस्वी संपादक और दीन-हीन, वंचितों के समर्थक लेखक हैं। उनकी दृष्टि आधुनिक भावबोध से भी संपन्न है। धर्म, जाति, रंग आदि के आधार पर भेद का मुखर विरोध उनकी रचनाओं में दिखता है। स्वदेशी और स्वराज के प्रति वे मोहाविष्ट हैं। वे 'एक लिपि' और' 'एक भाषा' के समर्थक हैं। उनके लेखन में अंग्रेजी राज और उसके अनुगामी वर्ग की कटु आलोचना व्यंग्य एवं आक्रोश के रूप में परिलक्षित होती है। वे सांप्रदायिक सद्भाव को राष्ट्र के हित के लिए उत्तम समझते हैं। भारतीयता व जातीयता के प्रश्न पर वह हिंदू और मुसलमान दोनों को जोड़कर देखते हैं। उनकी दृष्टि में व्यक्ति किसी भी धर्म, जाति अथवा रंग का हो, यदि वह भारतभूमि में जन्मा है तो वह पूर्णतः भारतीय है, उसे अपनी भारतीयता व राष्ट्रीयता को प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं है। वे भाषा और लिपि को मजहब से अलग करके देखते हैं। कटाक्ष एवं विनोदपूर्ण शैली, ज्ञान और मानवता के साथ-साथ समाज सुधार और संस्कृति के हित संबंधी विचारों का समावेश भी उनके लेखन में दिखता है। उनके साहित्य का एक पक्ष पुरातनवाद की परिधि में आता है तो वहीं दूसरा अपने राष्ट्रीय विचारों के कारण प्रगतिशीलता के साथ जुड़ता हुआ प्रतीत होता है। बालमुकुन्द गुप्त के रचनाकर्म एवं युगीन भावबोध को समझाने में यह पुस्तक उपयोगी सिद्ध होगी ऐसी लेखक को आशा है। इस विश्वास के साथ यह पुस्तक आप गुणग्राही पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।
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