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Budi Hui Utagan
कविता के कारखाने में हो रहे भारी-भरकम उत्पादन से पैदा सार्थक सृजन के सूखे के बीच गुंजन का कविता-संग्रह ' बूढ़ी हुई उटंगन' हमें इस दृष्टि से आश्वस्त करता है कि उपभोक्तामूलक अपसंस्कृति के तमाम दबावों के बावजूद हमारी युवा पीढ़ी की संवेदना के स्रोत सूखे नहीं हैं। कवयित्री के लिए उटंगन केवल एक नदी नहीं रही, वह निरंतरता में टूटती-बिखरती नारी- अस्मिता का महाख्यान है। यह नारी एक ऐसी विडंबना को ढोती है, जो द्रष्टा को देह का अतिक्रमण नहीं करने देती (देह का प्रश्न ) । रिश्तों की डोर से बँधी पीले आकाश में उड़ती पतंगें उसे मानव-सम्बंधों की गहराई से पड़ताल का दायरा बनाती हैं (पीला आकाश) । मन की हिलोरें गहरे जाकर अध्यात्म का भी संस्पर्श कर आती हैं । समग्रतः गुंजन की ये कविताएं आपको भावोत्तेजना से हिलकोरेंगी नहीं, गहरी मानवीय संवेदना की भूमि पर मजबूती से खड़े होने की ताकत देंगी ।
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