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Ek Tuti Hui Naav Ki Tarah Bhuvneshwar
भुवनेश्वर की यादों के कुछेक टुकड़े अन्यत्र 'भी समय-समय पर हमारी दृष्टि में आ जाते रहे जिन्हें पढ़कर हम बार-बार इस कार्यभार के प्रति सचेत हो जाते रहे कि उन समस्त स्मृति-प्रसंगों को एकजाई करके उस साहित्यकार की बिखरी ज़िन्दगी की एक मुकम्मल तस्वीर बनाने की कोशिश की जाए। 1991 में 'संदर्श' के माध्यम से उनके यादनामे और रचनाकर्म के मूल्यांकन का मिला-जुला वह प्रयास हमारा आरम्भिक कदम था। उसी क्रम में प्रस्तुत इस 'स्मृति-आख्यान' में 'संदर्श' की कतिपय सामग्री के साथ भुवनेश्वर के कुछ मित्रों के यादनामो को शामिल करने के लिए हम उनके अत्यन्त आभारी हैं। यहाँ हम इस अप्रतिम कहानीकार और कालजयी असंगत नाटक लेखक की जीवन-स्मृतियों को जोड़कर यह देखने-जानने का प्रयास कर रहे हैं कि हिन्दी के तत्कालीन किन संगी-साथियों के भीतर भुवनेश्वर अपने कद और छवि के साथ ज़िन्दा हैं। इस यादनामे में उनका वह समय भी ध्वनित होता है जब भुवनेश्वर ने साहित्यिक दुनिया को अपनी रचनात्मक मेधा से सभी को अचम्भित कर दिया था। बावजूद इसके यह विडम्बना ही है कि वे अपनी छोटी-सी ज़िन्दगी घोर अभावों, कष्टों और उपेक्षा में ही नहीं, बल्कि अन्तिम दिन विक्षिप्तावस्था में जीने को अभिशप्त हुए। आखिर क्या कारण है कि हिन्दी में इतने अधिक विस्तार और स्वीकृति के बावजूद भुवनेश्वर की किशोरावस्था का एकमात्र चित्र उनके मित्र श्याम सिंह सेठ के साथ किसी के मृत्यु-शोक में जाने के अवसर का उपलब्ध है जिसमें वे सिर झुकाये एक हत्थेदार कुर्सी पर बैठे हुए हैं।
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