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Hindi Vigyapan Ka Pehla Daur

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2018
978-93-82554-73-8

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आरंभिक विज्ञापन सूचनात्मक मात्र होते थे, इनके कलेवर में परिवर्तन के पहले लक्षण उन्नीसवीं सदी की आखिरी दहाई में दिखाई देते हैं । यह ध्यान देनेवाली बात है कि इस दौर में कुछ ऐसी पत्रिकाएँ भी रहीं जिनमें विज्ञापन सिरे से नहीं छपे या कम छपे तो दूसरी ओर ‘हिंदी प्रदीप’, ‘इंदु’, ‘प्रताप’, ‘प्रभा’, ‘विशाल भारत’, ‘माधुरी’, ‘सुधा’, ‘चाँद’, ‘मर्यादा’ आदि में विज्ञापनों को पर्याप्त स्थान मिला । आरंभ में पत्रिकाओं में खाली स्थानों पर विज्ञापन दिए जाते थे तो धीरे–धीरे यह प्रवृत्ति भी दिखाई देती है कि विज्ञापनों के लिए स्थान बनाए जा रहे हैं । यहाँ हम विज्ञापनों को मोटे तौर पर दो वर्गों में विभाजित करके देखेंगेµसाहित्यिक विज्ञापन और साहित्येतर विज्ञापन । साहित्यिक विज्ञापन यानी नई प्रकाशित पुस्तकों, पत्रिकाओं, समाचार पत्रों आदि के विज्ञापन । दूसरी ओर साहित्येतर विज्ञापन हैं जिनमें सरकारी और गैरसरकारी दोनों प्रकार के विज्ञापन आते हैं । हिंदी की पत्र–पत्रिकाओं में गैरसरकारी विज्ञापन कम या नाम मात्र के मिलते हैं । यानी, देशी भाषा की पत्रिकाओं में प्रकाशित विज्ञापन देशी व्यापार के हैं । देशी अर्थव्यवस्था के लिए यह एक अत्यंत अनिवार्य आवश्यकता थी ।

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