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Jab Tak Manushya Hai Kavita Rahegi
मनुष्य और कविता–सहित तमाम कलाओं का विकास लोक के भीतर होता हैय लोक के बाहर किसी अलौकिक जगत् में नहींय इसे सूत्रबद्ध करते हुए रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा था, ‘मनुष्य लोकबद्ध प्राणी है । उसकी अपनी सत्ता का ज्ञान तक लोकबद्ध है । लोक के भीतर ही कविता तथा किसी कला का प्रयोजन और विकास होता है ।’ कविता का जन्म और विकास न किसी अलौकिक जगत् में हुआ है और न तो जगत् और जीवन से निरपेक्ष किसी मनोजगत् में । कल्पना और भावों के अन्तर्जगत् का निर्माण बाह्य जगत् के रूपों और व्यापारों के ही आधार पर होता है । ‘ज्ञानेन्द्रियों से समन्वित मनुष्य जाति जगत् नामक अपार और अगाध रूप–समुद्र में छोड़ दी गई है । न जाने कब से वह इसमें बहती चली आ रही है । इसी की रूप–तरंगों से ही उसकी कल्पना का निर्माण और इसी की रूप गति से उसके भीतर विविध भावों या मनोविकारों का विधान हुआ है ।’ त्रिलोचन, रामचंद्र शुक्ल की इसी लोकदृष्टि के सच्चे उत्तराधिकारी हैं । उनके लिए ‘काव्य जीवन की प्राणमयी भाषा है’ और चूँकि ‘जीवन देश और काल में स्थित है’ इसलिए कविता का उद्भव और विकास भी देश और काल के ही भीतर होता है । धरती से आकाश तक व्याप्त जो सौन्दर्य–सत्ता सामान्य मनुष्य के हृदय को आकृष्ट करती है, उससे कवि हृदय ही कैसे विमुख रह सकता है, ‘जो सौन्दर्य–सत्ता धरती से आकाश तक व्याप्त है, जिसकी ज्योति कण–कण में तेज और महिमा का समावेश कर रही है, जिसकी अमूर्त्त लहरें जड़–चेतन को समान रूप से वरण करती हैं, जिसकी परिमा में जीवन का प्रारम्भ और विकास हुआ उसकी उपेक्षा कोई संवेदनशील और भावपूर्ण हृदय नहीं कर सकता । इस परम तत्त्व में वह प्रेरणा केन्द्रीभूत है जिसके प्रश्रय में जीवन की संपूर्ण शक्ति क्रियाशील और प्रवृत्त है । -अवधेश प्रधान
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