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Katha Prasthan : 21vi sadi ki Kahani
आधुनिक हिंदी कहानी के सफर को करीब सवा सौ साल होने आए । इस बीच कहानी ने कई मोड़ लिए । कई आंदोलनों से गुजरी । इसमें कई बदलाव आए । इसकी बदलती प्रवृत्तियों को केंद्र में रख कर मूल्यांकन भी हुए । साठ, अस्सी और फिर नब्बे के दशक में बांट कर इसमें आए परिवर्तनों को रेखांकित किया गया । मगर खासकर नब्बे के बाद हिंदी कहानी में बहुत चैंकाने वाले बदलाव नजर आए । वस्तु, शिल्प और कलेवर के स्तर पर । इक्कीसवीं सदी की कहानियों का स्वरूप यहीं से बनना शुरू हुआ । इसके पीछे कुछ राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिघटनाएं हैं, तो कथाकार में खुल कर प्रयोग करने और तमाम विधाओं से रस खींच कर रचने का साहस भी । इक्कीसवीं सदी के कथाकार का दायरा ज्यादा व्यापक है । उसने जीवन के बहुत बारीक और अनछुए पक्षों को देखना शुरू किया है । अब उसने कहानी को पारंपरिक शैली से बाहर निकाल कर कविता, नाटक, संस्मरण आदि तमाम विधाओं से गलबहियां करते हुए चलना सिखाया है । कथा की छूट गई शैलियों को आत्मसात किया है । इस दौर में कम से कम तीन पीढ़ियां सक्रिय हैं । एक वह जो अस्सी के दशक में पहचान बना चुकी थी, दूसरी वह जो नब्बे के दशक में उभरी और तीसरी वह जिसने इक्कीसवीं सदी में लिखना शुरू किया । इन तीनों पीढ़ियों ने मिल कर इक्कीसवीं सदी की कहानी का जो रंग और रसायन तैयार किया है, वह एक नया क्षितिज रचता है । यहां से एक नई संभावना का द्वार खुलता है । इस संकलन में इक्कीसवीं सदी यानी सन दो हजार के बाद सक्रिय तीनों पीढ़ियों के कथाकारों की कहानियां लेकर इस दौर में लिखी जा रही कहानी के मिजाज को देखने–समझने का प्रयास किया गया है । इसमें घर–परिवार, मध्यवर्ग की तकलीफों से लेकर नए विमर्शों, मसलन, स्त्री, दलित, आदिवासी, युवा, वृद्ध आदि को केंद्र में रख कर लिखी जा रही कहानियों से एक–एक रंग चुने गए हैं । इसमें कुल चालीस कहानियां संकलित हैं । यानी चालीस रंग । इनसे इक्कीसवीं सदी में लिखी जा रही कहानियों का मिजाज पता चलता है । निस्संदेह यह हिंदी कहानी का एक नया प्रस्थान बिंदु है ।
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