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Loktantra, Rajneeti Aur Media
लोक और तंत्र में गहराती खाई, भीड़ में बदलता लोकतंत्र, लोकतंत्र की रीढ़ है स्वतंत्र न्यायपालिका जैसे संपादकीय आज के समाज की छिन्न–भिन्न हो रही व्यवस्थाओं का उल्लेख करते हैं तो प्रेम और द्रोह के बीच और समाज में बढ़ती दरार के ख़तरे जैसे लेख भारतीय लोकतंत्र में अचानक से रेखांकित होते राष्ट्रवाद और अभिव्यक्ति की आज़ादी और उसके मार्फत संचार माध्यमों की समस्याओं और वृत्तियों की ओर चल पड़ते हंै । अपूर्व जोशी ने इस पुस्तक में प्रभाष जोशी की पत्रकारिता पर भी कई संपादकीय लिखे हैं लेकिन उनसे कहीं अधिक महत्वपूर्ण वह संपादकीय वह हैं जिनमें वह पत्रकारिता के वर्तमान संकट पर विचार करते हैं । इस कड़ी में उन्होंने ‘पेड़ न्यूज़’, सोशल मीडिया, मीडिया की विश्वसनीयता, मीडिया की निष्पक्षता, पोस्ट ट्रुथ, फेक न्यूज़ जैसे विषयों पर बहुत सारा और बहुत रोचक लेखन किया है । अपूर्व के इस संकलन को पढ़ते हुए मुझे वाकई ऐसा लगा जैसे मेरे सामने भारत संबंधी कोई वृत्त फिल्म चल रही है और मैं अतीत में उतरते हुए उस बदलाव को देख रहा हूँ जिसमें देश की राजनीति, देश की सामाजिक व्यवस्था, देश का लोक और उसका लोकतंत्र, भर नहीं है, बल्कि फिल्म के अंदर इस सबको दिखाने और समझाने वाला मीडिया भी है जिसके अनेक पात्र अपने को जितना छिपा रहे हैं, उतने ही उघड़ते जा रहे हैं । कुछ तो इतने समझदार हो गए हैं कि वह अब अपने के किसी मुखौटे या नकाब में छिपाना भी नहीं चाह रहे हैं । झूठ और सच के बीच की दीवार दरक गई है । कहने का तात्पर्य यह कि अपूर्व जोशी का यह संकलन पिछले दशक का एक कोलाज भी प्रस्तुत करता है और उसी के भीतर लेखक ऐसे कठिन दौर में अभिव्यक्ति के रास्ते भी खोजता है और ज्यादातर दबी ज़बान ही सही अपनी बेबाक राय भी रखता है ।
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