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Mannu Bhandari Ka Srajanatmak Sansar
सामाजिक जीवन में स्त्री के प्रति भेदभावपूर्ण नजरिया पुंसवादी सामन्ती विचारधारा की वजह से पैदा हुआ। स्त्री-विमर्श के तहत किस तरह स्त्री को असमानता को साहित्य के जरिए समझा जा सकता है? किस तरह साहित्य स्त्री-विमर्श की मुकम्मल पहचान देने में मदद कर सकता है? ये सवाल मन्नू भण्डारी के साहित्य से रूबरू हो उन पर विचार करते हुए विश्लेषित किए जा सकते हैं, जहाँ उनकी सम्वेदनाएँ, अनुभूतियाँ, उनका दृष्टिकोण पुंसवादी बौद्धिक तटस्थता की दृष्टि से भिन्न रहा है। उनका स्वतन्त्र व्यक्तित्व है वे मानवी रही हैं। उनके लेखखे इन्सानियत सर्वोपरि है। आधुनिकीकरण ने उन्हें आत्मनिर्भर व सृजनात्मक बना परम्परा से भिन्न पहचान दी। मिन्न यानी परम्पराओं से पूर्ण मुक्ति नहीं वरन् अपने को परम्परागत बनाए रखकर आधुनिक भावबोध की प्रक्रिया से संलग्न होना। कहना न होगा कि मन्नू भण्डारी के पास जो संयत, सन्तुलित व सांकेतिक दृष्टि थी उसे उन्होंने सर्जनात्मकता में पिरोया । उनके स्त्री-पात्र सामाजिक अन्तर्विरोधों से ही जन्मे थे, जहाँ स्त्रियाँ आधुनिक बनीं। वे परिवार, समाज के मातहत स्वतन्त्र एवं आत्मनिर्भर व्यक्तित्व की हामी बनकर सामने आती हैं। स्त्री की अस्मिता, आकांक्षाओं, इच्छाओं व जरूरतों, अनुभवों एवं मनःस्थितियों का द्वन्द्व व दुविधा का अत्यन्त जीवन्त बारीक अंकन उनकी संयत सृजनात्मकता का महत्वपूर्ण अंग रहा है।
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