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Natya Mulyankan Mala : Natakkar Mohan Rakesh

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2025
978-93-48650-43-6

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मोहन राकेश हिंदी के एक ऐसे समर्थ नाटककार रहे हैं, जिन्हें पाठक उनके रचनात्मक संदभों में हमेशा याद रखेगा। भारतेंदु काल से ही हिंदी नाटक अपनी सक्रियता से पहचान बना रहा था किंतु उसकी गति बहुत धीमी थी। उस समय पारसी व्यावसायिक रंगमंच पूर्ण अस्तित्व में था। उसके विरुद्ध अव्यावसायिक रंगमंच की स्थापना करना निश्चित रूप से एक चुनौती थी, लेकिन यह कहना अतिकथन नहीं होगा कि भारतेंदु हरिश्चंद्र और पं. माधव शुक्ल के साझा प्रयासों से अर्द्ध-व्यावसायिक 'पृथ्वी थियेटर' और 'इप्टा' की स्थापना हुई; जिससे हिंदी रंग-आंदोलन की हलचल आरंभ हुई। यह नयी शुरुआत अवश्य थी किंतु इससे पहले काशी, लखनऊ, इलाहाबाद एवं कानपुर हिन्दी प्रदेश के रंग-नगर के रूप में अस्तित्व में थे साथ ही कलकत्ता, दिल्ली और बम्बई महानगरों में हिन्दी-रंगमंच अपनी पूरी क्रियाशीलता के साथ विद्यमान था। रंगमंच पर प्रस्तुति के संदर्भ में पारसी रंगमंच और भारतीय रंगमंच में अन्तर स्पष्ट था। दोनों रंगमंच अपने परिवेश से प्रभावित थे एवं तत्कालीन परिस्थितियों-अनुसार नाट्य-प्रस्तुतियों के लिए अनुकूल भी। फिर भी व्यावसायिक और अव्यावसायिक रंगमंच का अन्तर स्पष्ट दिखाई दे रहा था, कुल मिलाकर गंभीर रंग-संस्कार निरन्तर क्षरित हो रहा था। आज़ादी के बाद हिंदी-नाटक और रंगमंच में एक ऐसा बदलाव हम देखते हैं कि दोनों का संबंध एक-दूसरे का पूरक बनने लगा

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