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Nav Upniveshvad Aur Loktantra
नव-उपनिवेशवाद और लोकतंत्र भी हमारे देश की नियति और समाज की उलझनों पर बहस के रूप में है। मेरी राय में उत्तर उपनिवेशवाद की भ्रमक धारणा के बजाय हमें वास्तविकता को ध्यान में रखते हुए नव-उपनिवेशवाद का विश्लेषण करना चाहिए। इस दौर में लोकतंत्र स्वयं कितने संकट झेल रहा है, यह हम अपने देश में और अपने जैसे विकासशील समाजों में देख पाते हैं। वर्तमान विश्व की समस्याएँ औपनिवेशिक इतिहास से उसी प्रकार जुड़ी हैं जिस प्रकार समकालीन भारत की समस्याएँ आज़ादी की परिस्थितियों से जुड़ी हैं। लेकिन इस बीच बौद्धिक क्षेत्र में ऐसी अवधारणाएँ प्रचलित हो गयी हैं जो सचाई को बैंक देती हैं और शायद मन को सांत्वना भी देती हो। नितांत मिथ्या को 'झूठ' न कहकर 'उत्तर-सत्य' कहा जाता है और नवउपनिवेशवाद को उत्तर-उपनिवेशवाद । जैसे कभी अध्यात्म-चिन्तन में उत्तर-जीवन की कल्पना की जाती थी जो मनुष्य के मब और अधूरे सपनों पर आधारित थी, वैसे ही संसार की सचाइयों से चहकाने के लिए आज भी विभिन्न जवधारणाएँ प्रचारित की जाती है। यह प्रक्रिया सार्वभीम है। उत्तर-जीवन की कल्पनाओं में विभिन्न चों के पुरोहित तंत्र के निहित स्वार्थ मौजूद होते थे। उनको निजी हित इन कल्पनाओं के माध्यम से जीवित मनुष्यों की चेतना पर हावी ही जाते थे। इतिहास के परवतीं अनुभवों को देखते हुए ज्ञात होता है कि वास्तव में यह प्रक्रिया सर्वकात्तिक भी है (सनातन नहीं।)। इन बातों पर सामूहिक चिंतन से ही मूल्यवान विचार और सार्थक राह निकल सकती है। आप इस बहस में हिस्सा लेकर मुझे सही राह खोजने में मदद करें, यह अनुरोध है।
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