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Navjagran Aur Sanskriti
कथाकार और विचारक कर्मेन्दु शिशिर के ये लेख हमारे समाज व संस्कृति के परिदृश्य को, उसकी जटिल द्वंद्वात्मक बनावट के साथ, समझने में सहायता करते हैं । ये लेख साहित्य और साहित्यकार की सुपरिचित आत्मग्रस्तता का सुबुद्ध व सहिष्णु प्रतिकार करते हैं और एक लेखक की सोच व सरोकारों के व्यापक तथा दूरगामी क्षितिज खोलते हैं । शब्द और कर्म, विचार और संवेदना की सुलझी हुई एकता का रचनात्मक साक्ष्य पेश करते हुए ये आलेख महज समझ पर रुक नहीं जातेय बल्कि कर्म और व्यवहार के अछोर इलाके की ओर बढ़ने की जरूरी प्रेरणाएं भी देते हैं । लगातार कठिन होती आई वस्तुपरक ईमानदारी का निर्वाह करते हुए, गहरी आवेगमय संलग्नता के साथ जिये गए अपने मुश्किल जीवन के विविध अनुभवों तथा व्यापक रुचियों जिज्ञासाओं से भरे उनके विस्तृत अध्ययन ने हमारे समय की अनेक गुत्थियों तथा अवरोधों की मूल्यवान पड़ताल की है । विचारों के क्षेत्र में छाई निराशा, अवसाद, हतोत्साहना अथवा चालू पूर्वग्रहों का रचनात्मक प्रतिकार करते हुए लेखक ने कहीं भी निहित समझौतों अथवा छद्म साहसिकता का सहारा नहीं लिया । ऐतिहासिक परिवेश में तथ्यों और उनकी संभावनाओं की एकता के यथार्थ में एकनिष्ठ कर्मेन्दु शिशिर विचारधाराओं से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण व रक्षणीय विचारप्रक्रिया को मानते हैं जो कदाचित् उनकी जननी है निश्चय ही विचार और विचारणा में उनकी आस्था अक्षुण्ण है और एक लेखक के रूप में यह उनकी पहली प्रामाणिक मानवीयता है । किंतु उनका विचार निरा विचार नहीं, मुक्तिबोध के शब्दों में ‘सत–चित् वेदना’ है । क्रीड़ा–कौतुक, विलास या व्यवसाय नहीं । ये लेख समकालीन विचारों के मुहावरे हैं । सहज सहयात्री भाव ही इनकी साहित्यिकता है । अपने सरोकारों में मशरूफ पर मुक्तमना ये आलेख एक संवाद धर्मी लोकनेता लेखकीय मानस के ‘क्लोज–अप्स’ है । —भृगुनंदन त्रिपाठी
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