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Rajtap
हर व्यक्ति के जीवन में अपने स्वप्न, अपनी अभिलाषाएँ और अपने अभाव होते हैं। मस्तिष्क के वन में विचारों की भिन्न-भिन्न क्यारियों बनती है। भाषा एक वरदान है, एक ऐसा धागा जो उन पुष्पों को साथ बाँधकर जयमाला बनाता है। जैसे ही मैंने साहित्य का रसास्वादन आरम्भ किया, मेरे विचारों एवं कल्पनाओं को अभिव्यक्ति के लिए एक माध्यम मिला। साहित्य तो संस्कृति का अक्षय वसंत है। श्रीमती महादेवी वर्मा के अनुसार संस्कृति ऐसी जीवन पद्धति है, जो एक विशेष प्राकृतिक परिवेश में मानव निर्मित परिवेश संभव कर देती है और फिर दोनों परिवेशों की संगती में निरंतर स्वयं आविष्कृत होती रहती है। संस्कृति निराकार ईश्वर की अनुभूतियों को साकार बनाने में भी अपना योगदान देती है। वह ईश्वर के विविध रूपों की समन्वयात्मक समष्टि है। भारत को स्वतंत्रता मिले इतने वर्ष हो गए किन्तु अभी तक हम वैचारिक दासता एवं परतंत्रता की बेड़ियाँ नहीं तोड़ पाए हैं। पश्चिमी संस्कृति के अंधानुकरण और उससे जो भारतीय संस्कृति का लोप हो रहा है, वह उसका प्रमाण है। इसीलिए मैंने उस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का चयन किया जब भारत पर विदेशी संस्कृतियों का प्रभाव निम्नतर था। मैंने वैदिक संस्कृति का सीधा अनुसरण नहीं किया क्योंकि वह यथार्थ में भी आदर्श के बहुत निकट है परन्तु अपने पात्रों की विचारधारा में उसे अवश्य ढाला है। विशेषतः मुख्य पात्रा महर्षि वैदिक कालीन विदुषियाँ, यथा अपाला, विश्ववरा, घोषा, वाक् अम्भृणी, गार्गी, मैत्रेयी; तथा वीरांगनाएँ जैसे विश्वपला एवं मुदगलानी के प्रभावित है। बृहदारण्यक उपनिषद् कहता है कि ब्रह्म ने एकाकी न रहकर अपने आपको दो भागों में विभक्त कर लिया नर और नारी।
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