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Samaj, Sahitya Aur Aalochana
साहित्य में जब आलोचना का ह्रास या अवमूल्यन होता है तब रचनाशीलता यथास्थितिवाद की ओर बढ़ती है । जब समाज में आलोचना–बुद्धि का क्षरण या बहिष्कार होता है तब मनुष्यता गतिरुद्ध होकर बर्बरता की ओर बढ़ती है । दोनों स्थितियों में सामाजिक या राजनीतिक सत्ता निरंकुश होती है । यह जानी–मानी बात है कि मनुष्य की भौतिक उपलब्धियों में श्रम और कला, आत्मिक उपलब्धियों में भाषा और दर्शन तथा बौद्धिक उपलब्धियों में रागात्मक संवेदना और आलोचनात्मक विवेक सबसे मूल्यवान हैं । इन सबको मनुष्य की सहजात प्रवृत्तियाँ कहा जाता है । इन सहजात प्रवृत्तियों से मनुष्य की सहजता का घनिष्ठ सम्बन्ध है । इनके साथ ही मनुष्य के सामाजिक सम्बन्ध होते हैं । ये सम्बन्ध मनुष्य की दोहरी गतिविधि का परिणाम हैं । एक ओर काम, क्षुधा, क्रोध जैसी सहज आवेगमय वृत्तियाँ हैं जो सभी प्राणियों में हैं, मनुष्य में वे परिष्कृत रूप में हैं । दूसरी ओर संयम, मर्यादा, सहजीवन आदि नैतिक प्रवृत्तियाँ हैं जो मनुष्य की अपनी हैं । दोनों में संतुलन भी रहता है और टकराव भी । जहाँ संतुलन रहता है, वहाँ अनुशासन की ये शक्तियाँ सहज वृत्तियों के सामंजस्य में होती हैं । ऐसा अक्सर समाज की उन्नतिशील अवस्था में देखा जाता है । लेकिन प्राय: मनुष्य की सहज वृत्तियाँ आवेगमूलक होती हैं और संयम–अनुशासन की प्रवृत्तियाँ विवेकमूलक । दोनों में संतुलन लाने के लिए मनुष्य की आंतरिक शक्तियों से अधिक बाह्य संस्थाएँ महत्वपूर्ण होती हैं । जैसे परिवार, सामाजिक सम्बन्ध, राज्य के नियम । मनुष्य नैसर्गिक सहज वृत्तियों के साथ–साथ इन अर्जित सजग प्रवृत्तियों को स्वेच्छा से तभी अपना सकता है जब उसे अपनी सीमाओं और कर्तव्यों का तथा समाज की आवश्यकताओं और भूमिकाओं का उचित विवेक हो । यह तभी संभव है जब उसका आलोचनात्मक बोध जाग्रत और सक्रिय हो । इस कार्य में साहित्य, विशेषत: साहित्यिक आलोचना मनुष्य की सर्वाधिक सहायता करती है । इसलिए समाज से साहित्य का और आलोचना का रिश्ता काफी जटिल और बहुस्तरीय होता है । ---भूमिका से