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Sanchar Bajar Aur Bhumandalikarn
भूमंडलीकरण ने केवल आर्थिक स्तर पर संसार को प्रभावित नहीं किया । स्वयं भूमंडलीकरण बाजार के साथ–साथ संचार की देन था । इसलिए सांस्कृतिक क्षेत्र में भी उसका प्रभाव पड़ा । भारत में शिक्षा, संस्कृति, भाषा, साहित्य, सामाजिक अस्मिता आदि सभी क्षेत्रों में उसका प्रभाव प्रत्यक्ष रूप में देखा गया । एक तरफ ‘राष्ट्र’ और ‘वर्ग’ की धारणाएँ पृष्ठभूमि में ठेली गयीं, दूसरी तरफ दलित–स्त्री–आदिवासी जैसी नयी अस्मिताएँ विचार के केंद्र में आयीं । एक तरफ भारतीय सुंदरियों पर विश्व के पूँजीपतियों का ध्यान अचानक आकर्षित हुआ, दूसरी तरफ साहित्य में भी ‘माफिया’ की चर्चा सुनाई देने लगी । यही नहीं, लोकसंस्कृति के पारंपरिक स्वरुप को भी बाजार ने बहुत गहराई से प्रभावित किया । इस सारी बहस के बीच ‘दूसरी दुनिया’-एक नयी दुनिया-के अभ्युदय का आशावाद भी जागृत रहा । इस आशावाद का स्रोत भी दो बातों में था । विज्ञान और प्रौद्योगिकी की उपलब्धियाँ के कारण पिछड़े हुए देशों में भी ज्ञान और संस्कृति की उपलब्धियाँ तथा अपने हितों के प्रति लगातार बढ़ती जागरूकता, जिसके परिणामस्वरूप अनेक क्षेत्रीय मंचों और सहयोगी संगठनों का आविर्भाव हुआ । कहने की जरूरत नहीं कि ऐसी क्षेत्रीय–सहयोगी संस्थाओं को भूमंडलीय शक्तियाँ हर्गिज“ पसंद नहीं करतीं, चाहे ‘आसियान’ हो या ‘ब्रिक्स’ (BRICS) । ‘संचार,बाजार और भूमंडलीकरण’ में इन विभिन्न पहलुओं का यथासंभव संक्षिप्त विवेचन किया गया है । भूमंडलीकरण की इस बहस में गाँधीजी का बार–बार स्मरण हुआ है । विशेषत: ‘हिन्द स्वराज’ का । इस बात को देखते हुए ‘हिन्द स्वराज’ पर वीरेंद्र कुमार वर्णवाल की पुस्तक की समीक्षा ‘निरुपनिवेशीकरण के हक में’यहाँ परिशिष्ट में दे दी गयी है, हालाँकि यह समीक्षा ‘साहित्य की समझ और आलोचना’ पुस्तक में है, जो सिर्फ समीक्षाओं का संकलन है ।
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