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Stree Ki Gandh

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2022
978-93-82554-39-4

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वैश्वीकरण के दौर में बाजार के समीकरण आदमी की जरूरत पूरी कर रहे हैं । मनुष्य को क्या खाना है, क्या पहनना है, कैसे रहना है, सब बाजार तय करता है लेकिन बाजार को अपनी रंगत बनाये रखने के लिए ‘डर’ को बनाए रखना भी जरूरी है । यह ‘डर’ शरीर को लेकर है तो सौंदर्य के मानक भी गढ़ता है और प्रसाधनों का पूरा सरंजाम भी । चिंता है कि डर की गिरफ्त में मनुष्य और मनुष्यता पूरी तरह आती जा रही है, यह दूसरी बात है कि ‘डर’ अपनी जगह बदलता रहता है, यह सटीक मुहावरा है आशा सिंह सिकरवार का । ‘स्त्री की गंध’ संग्रह की कविताओं में स्त्री को देखने, परखने की कोशिश उसके स्वत्व एवं अस्मिता के चारों ओर बनी हुई है लेकिन देह की इत्ता भी समान्तर महत्वपूर्ण है । ‘काली स्त्री’ का माँसल आकर्षण श्रम शक्ति के दर्प से निखर उठा है । उसकी बाहें वजन ढोने के कारण ‘जड़ों’ जैसी मजबूत हो गई हैं । यह ठूंठ, जड़, सौंदर्य नहीं है, रंगो में धीरे–धीरे प्रवेश करने वाला सौंदर्य है । कविताओं में बच्चे हैं, ऐसे बच्चे जिनका बचपन समाज की यातनाओं की भेंट चढ़ गया है । बड़े, ऊंचे घरों में मजदूरी करते हुए बचपन से कटे ये बच्चे उच्च वर्ग के भौतिक साधनों की पूर्ति का माध्यम बन जाते हैं । इस संग्रह की कवितायें अपने आस–पास घटित यथार्थ को आवाज़ दे रही हैं । कविताएँ शहर की ऐसी स्त्री की भी मनोदशा को चित्रित कर रही हैं जिसकी गृहस्थी महानगर के एक कमरे में सिमटी है । पूरे आकाश की आकांक्षा रखनेवाली स्त्री के हिस्से में एक टुकड़ा धूप भी नहीं है । स्त्री के प्रश्न सामाजिक सरोकारों से जुड़े लोक की आधारभूमि पर समाधान के स्थापित और मजबूती की माँग करते हैं । आशा सिंह सिकरवार केवल साक्षी भाव से परिदृश्य का अवलोकन नहीं कर रही है, हर अनुभव के बीच कहीं वह स्वयं मौजूद हैं । करुणा का सागर उमड़ता है लेकिन खूबी यह है कि कविता का स्वर कहीं करुण नहीं है, दैन्य की छाया से मुक्त है । कर्मठ दिनों के पाथेय पर कविता की स्त्रियाँ लिख रही है बाईसवीं सदी । कवयित्री की स्वर बच्चों के प्रति ममतालु है । पढ़ते हुए बच्चे, अनपढ़ वंचित बच्चे, असुरक्षा से घिरे बच्चे, सभी के प्रति उनके प्राप्य को लौटाने की चिंता बनी हुई है । कविताओं के केंद्र में स्त्री है । स्त्री धुरी की तरह है, जिसकी ऊंगली थामे खड़े है बच्चे । संग्रह की कवितायें शोषितों, पीड़ितों एवं हाशिये के लोगों की चिंता, पीड़ा में ओत–प्रोत हूँ । यह उदात्त भाव कविताओं की बड़ा फलक प्रदान कर रहा है । महत्वपूर्ण है कि ‘स्त्री की गंध’ केवल कस्तूरी नहीं है । कोमल और कठोर के बीच स्त्री दुविधाहीन निर्णायक भूमिका में है । --मुक्ता वाराणसी, उ.प्र. मो–: 07310367365

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