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Aadiwasi Aasmita: Prabhutav Aur Pratirodh

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इस पुस्तक में आदिवासी समाज के ऊपर जारी इसी औपनिवेशिक प्रभुत्व और उसके प्रतिरोध में खड़े आदिवासी समाज के संघर्ष को उनकी रचनात्मकता के साथ प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है । आज समकालीन विमर्शों में आदिवासी समाज भी अपनी जगह बना रहा है, लेकिन यह आज केवल उन रचनाओं तक केन्द्रित है जो विमर्श पूर्व लिखे गये हैं । यद्यपि अब तेजी से इस दिशा में लेखन हो रहा है फिर भी वह मुकम्मल नहीं है । कुछ लेखन तो सिर्फ ‘बहती गंगा में हाथ धोने’ जैसी मंशा की वजह से हो रहा है । जिसका आदिवासी जीवन और उनकी चिन्ताओं, से कोई सरोकार नहीं है । विमर्श के लिए जरुरी है कि अब तक ज्ञान और विचारों के क्षेत्रों में अवश्य आदिवासी समाज–व्यवस्था, उनका दर्शन, इतिहास, साहित्य तथा उनकी कला को उनकी मातृभाषा और मौखिक साहित्यों से निकालकर सामने लाया जाये । अब तक इनका जो भी विश्लेषण प्रस्तुत हुआ है वह अधिकतर बाहरी ‘आँख’ से देखा और परखा गया है जो कि अन्तर्विरोधों से पूर्ण है । इस सन्दर्भ में आदिवासी चिन्तक डॉ– रामदयाल मुण्डा के बाद हरिराम मीणा ने महत्त्वपूर्ण पहल करते हुए आदिवासी संस्कृति और समाज को उनकी सम्पूर्ण विशिष्टता के साथ रेखांकित करते हुए समय की गत्यात्मकता में परिभाषित किया है । उन्होंने घोटुल, धुमकुड़िया, भगोरिया जैसे आदिवासी समाज की आन्तरिक संस्थाओं की लोकतान्त्रिकता को आधुनिक वैश्विक समाज मे उनके देय पर गम्भीरता से विचार किया है । विमर्श में आदिवासी समाज की इन्हीं आन्तरिक विशेषताओं को सामने लाने की जरूरत है न कि ‘विकास’ के नाम पर उन्हें ऊँगली उठाकर केवल निर्देश दिये जायें । प्रसिद्ध आदिवासी कवि वाहरु सोनवने बहुत ठीक कहते हैं--‘हमें स्टेज पर बुलाया ही नहीं गया/हम स्टेज पर गये ही नहीं/हमें हमारी बातें हमें ही/उँगली के इशारों से बताई गयी’ । जब तक ऐसा होता रहेगा आदिवासी समाज से सार्थक संवाद सम्भव नहीं होगा । ---अनुज लुगुन

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