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Hindi Sahityeitihas Ka Bahujan Paksh
आखिर हिन्दी साहित्य के इतिहास के बहुजन ‘पक्ष’ को समझने की जरूरत क्यों है ? क्यों न इसे बिना किसी ‘पक्ष’ के ‘संपूर्णता’ में देखा जाए ? ऐसे सवाल उन आलोचकों की ओर से आते हैं, जो अन्यत्र ‘पक्षधरता’ को सबसे महत्वपूर्ण घोषित करते हैं । वस्तुत: इस तरह के सवाल हिन्दी साहित्य में जारी विमर्शों के ऐसे विरोधाभासों की बानगी हैं, जिन्हें रेखांकित किया जाना जरूरी है । इन सवालों के उत्स को चिन्हित किये बिना हम अपने साहित्य के इतिहास को देखने–समझने की सम्यक दृष्टि विकसित नहीं कर सकते ।
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