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Markandey : Chuni Hui Kahaniya
आजादी के बाद जो देश बन रहा है और उसके जमीनी सवाल मार्कण्डेय की कहानियों में वस्तुनिष्ठ ढंग से आते रहे हैं। नयी कहानी आंदोलन के बाद लिखी उनकी कहानियों में भी ये सरोकार मौजूद हैं। वे आजादी के बाद बनते ग्रामीण भारत को अपने यथार्थबोध से अभिव्यक्त करती हैं। अपने समकालीन फणीश्वरनाथ रेणु की आंचलिक दृष्टि से भिन्न मार्कण्डेय ने आंचलिकता के सौन्दर्य को ग्राम जीवन के जीवंत परिवेश में अभिव्यक्त किया है। नयी कहानी के दायरे में अकेलापन, निराशा, हताशा और आधुनिकताबोध से ग्रस्त कहानियाँ भी लिखी गयीं लेकिन मार्कण्डेय इन प्रभावों की भारतीय ग्रामीण और कतिपय शहरी परिप्रेक्ष्य से यथार्थपरक पड़ताल करते हैं। अपने समय समाज से सम्बद्ध हताशाएँ-निराशाएँ ही विश्वसनीय लगती हैं। मसलन 'हंसा जाई अकेला' के रोमानी आग्रहों के बीच हंसा के अकेलेपन की सामाजिक नियति और उसकी पीड़ा की जड़ें उसके परिवेश में धँसी हैं। इसीलिए यह अकेलापन विश्वसनीय है। मार्कण्डेय ग्राम कथा या आंचलिक कथा और नगर कथा जैसे विभाजनों को अस्वीकार करते थे। इसीलिए उन्होंने अपनी बहुत परिचित ग्राम्य कथाकार की छवि से अलग ग्राम्येतर संदर्भों की 'वासवी की माँ', 'सात बच्चों की माँ, 'कहानी के लिए नारी पात्र चाहिए' और 'एक दिन की डायरी' जैसी उल्लेखनीय कहानियाँ भी लिखीं हैं। इनके केंद्र में स्त्री सरोकारों के साथ-साथ दूसरी कथाभूमि से अपने रचना बोध को जोड़ कर विस्तृत करने का यल भी है।
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