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Mridula Garg Sanchayita

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2019
978-93-87187-47-4

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स्वतंत्रता के उपरान्त जिन गिने–चुने सर्जकों के मार्फत हिन्दी कथा–साहित्य में आधुनिकता की एक नई ऊर्जा व चमक आई उनमें से एक ज़रूरी और अव्वल नाम है ‘मृदुला गर्ग’ । जितना सशक्त लेखन उन्होंने किया है वह सचमुच अपने ढंग का अद्भुत लेखन है । मौलिक कथ्य एवं निर्भीक अभिव्यक्ति उनके सृजन की विशिष्टता है । उनकी सर्जना का लक्ष्य है पारम्परिक मान्यताओं को एक नई सजग आधुनिक दृष्टि प्रदान करना । उनके रचना संसार में सभी गद्य विधाएँ सम्मिलित हैं : उपन्यास, कहानी, नाटक, निबंध, यात्रा–साहित्य, संस्मरण, अनुवाद आदि । परन्तु वे मूलत: हैं कथाकार । स्त्री के समग्र मनुष्य होने के सारे अहसास उनके कथा–साहित्य में विद्यमान है । बकौल रमेश दवे, उन्होंने अपने चिन्तन में, अपने वैचारिक–बौद्धिक मनोभाव में और भौतिकताओं के ऊब भरे वस्तु संसार में स्त्री की एक ईमानदार मनुष्य–छवि का अवलोकन किया, उसे अपने अन्दर से लेकर, व्यापक स्त्री–संसार तक ले जाने का प्रयत्न किया और यह भी नहीं कि इस समूचे उद्यम में उन्होेंने स्त्री को महिमा–मण्डित करने का कोई प्रदर्शन किया हो बल्कि स्त्री को उसकी आत्म–छवि के सम्पूर्ण पक्षों के साथ प्रस्तुत किया । मृदुला जी लम्बे अरसे से निरन्तर लिख रही हैं, लगभग पैंतालीस वषों से । मूलत: अर्थशास्त्री होते हुए भी उन्होंने समय की नदी में बार–बार डुबकी लगाते बदलती आबोहवा के साथ समय और साहित्य का नित नया परिपाक प्रदान किया है । इन 45 सालों में वे विवाहेतर सम्बन्धों के अलावा राजनीति, इतिहास, रचना व जीवन के द्वन्द्व, वर्गीय स्पर्धा, स्मृति और इतिहास के सम्बन्ध, परिवार और समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार तथा स्त्री के प्रति कदाचार आदि समसामयिक विषयों पर निरन्तर लिखती रही हैं । आज भी लिख रही हैं । फिर भी मृदुला जी के लेखन का मूल स्वर है स्त्री, स्त्री का चिन्तन, और बने बनाये सामाजिक परिवेश से मुक्त होती स्त्री । उनकी अधिकांश कहानियों में स्त्री की पराधीनता, पीड़ा, आत्मसंघर्ष, सामाजिक संवेदनशीलता के साथ स्वतंत्रता की चिन्ता, चेतना और कोशिश की अभिव्यक्ति है । यह उन्मुक्त होती स्त्रियाँ हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में स्त्री–विमर्श के नये अध्याय की शुरुआत करती हैं । महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मृदुला जी की स्त्री–दृष्टि केवल एक वर्ग, एक समुदाय या एक क्षेत्र तक सीमित नहीं है । वे अनेक वर्गों, समुदायों और क्षेत्रों की स्त्रियों के जीवन संघर्ष को देखती और दिखाती हैं । कुल मिलाकर मृदुला जी ने ‘नारीवाद’ की नई परिभाषा गढ़ी है, जिसके जरिए वह ‘प्रखर महिला प्रवक्ता’ के रूप में सामने आती हैं । ----‘पुरोवाक्’ से

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वाह! क्या कमाल की किताब है! वाकई बहुत समय बाद ऐसी कोई किताब पढ़ी है जिसने सोचने पर मजबूर कर दिया। ये सोचने पर विवश करने वाली किताब इसलिए है क्योंकि ये पहली बार है जब मैं कोई ऐसी किताब पढ़ रहा हूँ जहाँ नायक अपने भाई के नजरिए से सच बोल रहा है।
Sahil Khan, Farrukhabad