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Stri Asmita Ki Khoj
आजकल जापान में ‘अपनी अस्मिता’ एवं ‘असली खुद’ की खोज के बारे में अनेक पत्रिकाएँ व किताबें प्रकाशित हो रही हैं । दिलचस्प बात यह है कि ऐसी किताबों में केवल स्त्रियों की अस्मिता की ही चर्चा की जाती है । अनेक स्त्रियाँ अपने वर्तमान हालात से सन्तुष्ट नहीं हैं और अपनी ‘नयी’ योग्यता की तलाश में हैं । स्त्रियों को अपनी अस्मिता अस्थिर लगती है । ऐसे समाज में स्त्री के लिये पुरुष से अलग तथा स्वतन्त्र रूप से ‘व्यष्टि’ होना कहाँ तक सम्भव रहा है ? भारतीय समाज स्त्री से किस प्रकार के गुणों की अपेक्षा करता है ? क्या स्त्री की व्यक्तिगत भावना को समाज द्वारा कभी सम्मान मिलता है ? उसकी अस्मिता को तय करने वाले कारक क्या हैं ? और वह स्वयं अपनी अस्मिता के बारे में क्या सोचती है ? और उसकी सोच वक्त के साथ बदलती है या नहीं ? अगर हाँ तो कैसे ? इन प्रश्नों में मेरी रुचि रही है और मैंने अपने शोध निबन्ध का उद्देश्य इसका उत्तर खोजना बनाया है । मेरे विचार में ये उत्तर महिलाओं की आवाजों में ही मिल सकते हैं । इसलिये उन आवाजों को खोजने के लिये मैं महिलाओं की आत्मकथाओं पर रोशनी डालना चाहती हूँ । पर हिन्दी में लिखी गयी महिलाओं की आत्मकथाएँ बहुत कम हैं और आत्मकथाओं को पूर्ण रूप से वास्तविक तथा तथ्यगत भी नहीं माना जा सकता है । इसलिये आत्मकथा के अलावा महिलाओं द्वारा लिखे गये विभिन्न पत्रों और ललित निबंधों का भी इस शोध निबन्ध में सामग्री के रूप में इस्तेमाल किया गया है । इससे हमें हिन्दी क्षेत्र के स्त्री–विमर्श में स्वयं स्त्रियों के योगदान का कुछ अनुमान होगा । ---प्रस्तावना से
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