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Stri Ke Haq Mein Kabir
कबीर स्वभावतः संत थे किन्तु संत होते हु भी उन्होंने अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता नहीं खोई । समाज से पराङ्मुख होकर वे किसी साधना की सफलता भी नहीं स्वीकार करते। विलक्षण व्यक्तित्व था उनका। एक तरफ माया-मोह की मिथ्या साधना में संलग्न लोगों को वे यम के डंडे का भय दिखाते थे, तो दूसरी तरफ दाढ़ी बढ़ाकर योगी और केश मुड़ा कर संन्यासी बनने वालों का खूब उपहास करते । एक तरफ सती-साध्वी स्त्रियों की मुक्त कंठ से प्रशंसा करते, तो दूसरी तरफ घूंघट की ओट में व्यभिचार करने वाली स्त्रियों की कटु निन्दा । वे सहज पर बल देते थे । किन्तु विडम्बना यह थी कि उनके सहज को न तो कोई समझ पाता था, और न अपना ही सकता था। इस न समझ पाने और न अपना सकने की पीड़ा कबीर के हृदय को निरन्तर सालती रहती थी, जो कभी-कभी उग्र रूप धारण कर विस्फोटक भी हो जाती । कबीर संत, कवि, और ( कतिपय पूर्वग्रहों को छोड़ दिया जाए तो) समाज - सुधारक तीनों थे। उनकी साधना स्वान्तः सुखाय नहीं थी । वे मनुष्य की पीड़ा का निवारण करने में ही अपनी साधना की सफलता मानते थे । इसके लिए तत्कालीन क्षयग्रस्त मानसिकता की उन्होंने जो निन्दा की है, उसमें विश्व-मानवता की ही चेतना अंतनिर्हित है। तात्कालिक समाज की केवल अधोगति को ही लक्षित करना कबीर का उद्देश्य नहीं था । उन्होंने समाज के विकास के लिए जो सर्जनात्मक संदेश दिए हैं वे आज की संक्रान्त और कुंठाग्रस्त मानसिकता के लिए भी सर्वथा उपादेय हैं। कबीर साहित्य में स्त्री के सम्बन्ध में काफी कुछ कहा गया है जिससे उनकी स्त्री- दृष्टि का पता चलता है।
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