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Suneeta Jain Sanchyan
सुनीता के चरित्र का मूल सत्त्व यही है कि वह किसी चीज़ को हाशिए में नहीं डालती । जिसे, और लोग अपना प्रयोजन सिद्ध करने लायक न मानकर डाल रहे होते हैं, उसे भी नहीं । उन विषयों को भी नहीं, जिनकी तरफ़ से ज्य़ादातर होशयार लोग उदासीन हो चुके हैं । इसलिए सुनीता, करीब–करीब हर विवादास्पद विषय पर सोचती और बोलती पाई जा सकती है । इस तरह का आचरण, यानी हाशियों को निरन्तर मुखपृष्ठ पर खींचते रहने का उपक्रम, जीवन में अनेक जटिलताएँ पैदा करता है । और कर्ता के अपने चरित्र में भी । विरो/ााभास और विसंगतियाँ चारों तरफ़ से घेराबंदी करने लगती हैं । सब तरह की विडम्बनाओं के बीच, आडम्बर और अपेक्षित आचरण की माँगों के हमलों से, अगर किसी चीज़ को बचाने का हौसला बना रहता है तो इसीलिए न कि जिसे बचाया जाएगा, वह अपना वास्तविक जीवन–केन्द्र होगा । तो जो बचा रहता है, वह लेखन होता है । सुनीता का परिष्कृत, आभरण–युक्त, सजीला रख–रखाव देखती हूँ, और देखती हूँ उसके लेखन की स्फूर्त सहजता को । कहीं तालमेल नहीं लगता । यह लेखन उस बाहरी व्यक्तित्व का प्रतिबिम्ब तो नहीं ही है । फिर आन्तरिक व्यक्ति का होगा । व्यावहारिक और आन्तरिक का अन्तर हर व्यक्ति के भीतर होता है । सुनीता के यहाँ कुछ ज्य़ादा है, इसलिए उसे जानना ज्यादा समय लेता है और मेहनत की भी माँग करता है । उसका लेखन उसके आन्तरिक व्यक्तित्व का दर्पण है या कहें उस सरस्वती का दर्पण है, जिसे उसने, अपनी तरफ़ से, अपने लेखन का पर्याय बना रखा है । -मृदुला गर्ग
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