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Versa Diary
प्रोफ़ेसर रवि रंजन जी को पढ़ना और सुनना एक विलक्षण अनुभव होता है । इनके सोचने की प्रविधि और हिन्दी गद्य का सांस्कारिक रूप विरल है । सो इनकी किताब ‘वारसा डायरी’ हाथ में आते ही मैं पढ़ने लगा । यह एक रोमांचक अनुभव सिद्ध हुआ । ‘वारसा डायरी’ केवल वारसा या पोलैंड के सफ़र या अनुभवों तक सीमित नहीं है, न ही यह कोई संस्मरणों का इतिवृत्त है, बल्कि यह इस विचारक के समस्त अनुभवों, अध्ययन तथा विभिन्न विषयों पर समय–समय पर स्फूर्त विचारों का स्तवक है जिसमें असावधान पाठक को कदाचित कभी काँटें भी लग जाएँ क्योंकि लेखक की ईमानदारी और स्पष्टवादिता कुछ भी, किसी का भी उधार नहीं रखती । इस पुस्तक को पढ़ते हुए मैंने जब जगमग करते उद्धरणों को अपनी डायरी में उतारना शुरू किया तो देखा कि वह आधी से अधिक भर चुकी है । इन उद्धरणों से लेखक के विशद अध्ययन और स्मृति–कोष का अनुमान तो होता ही है, साथ ही साथ लगभग नि:शस्त्र कर देने वाली उस भाव–विधि का क़ायल होना पड़ता है जो अहंपूर्वक स्वयं सब कुछ न कहकर दूसरों के माध्यम का सहारा लेती है । रवि जी ने प्राचीन यूनानी दार्शनिकों से लेकर नवीनतम कवियों तक के किंचित लम्बे उद्धरण पिरोये हैं जो न केवल कथ्य को दृढ़ करते हैं बल्कि उसे एक वृहत्तर परिप्रेक्ष्य भी देते हैं और लगता है कि यह केवल एक व्यक्ति की डायरी नहीं है वरन् अन्य स्वर भी वृन्दगान सा वातावरण निर्मित कर रहे हैं । ‘वारसा डायरी’ में वारसा तो है ही जिसके कुछ नये जीवन–अनुभव और शिक्षा प्रणाली, विशेषकर भाषा शिक्षण, पर प्रकाश पड़ता है, यहाँ चीन आदि के भी कुछ मार्मिक प्रसंग हैं । पश्चिम, एशिया, पाकिस्तान से लेकर मुज़फ़्फ़रपुर तक के सुदूर किशोर वय के भी चित्र हैं । रवि जी अपने लेखकों कवियों का कितना सम्मान करते हैं, प्यार करते हैं, यह आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री और राजेन्द्र प्रसाद सिंह के मर्मस्पर्शी प्रसंगों से समझा जा सकता है । कविता की पंक्तियाँ हमेशा टेक या पतवार का काम करती हैं । रवि जी लगातार इनका व्यवहार करते हुए चलते हैं । इस क्रम में साहित्य संबंधी, और कई बार साहित्यकार संबंधी, उनके मंतव्य भी प्रकाशमान होते हैं । हो सकता है कि साहित्यकार संबंधी उनके कुछ मंतव्य हमें नागवार या अयाचित लगें, पर लेखक अपने प्रति दृढ़निष्ठ है । यहाँ अनेक राजनैतिक टिप्पणियाँ और बहसें भी मिलती हैं जो पुस्तक के क्षितिज का विस्तार करती हैं और स्वयं लेखक के राजनैतिक विचारों को प्रत्यक्ष करती हैं । हो सकता है कई बार हम असहमत हों जिसका आमंत्रण कभी बंद नहीं होता । प्रोफेसर रवि रंजन उदार, सदाशयी विचारक हैं जो प्राय% वस्तुनिष्ठ रहने का प्रयत्न करते हैं और रहते भी हैं । फिर भी कई सामाजिक प्रश्न ऐसे हैं जहाँ दो या दो से अधिक दृष्टिकोण संभव हैं । ‘वारसा डायरी’ एक अलग तरह की रोजनिशि या दैनंदिनी है जहाँ दिनों और रातों के लंबे–लंबे अंतराल हैं, अनेक महादेशों और महासागरों की फाँक हैं, बचपन से लेकर अब तक के मनके हैं और इन सब को भींगे नयनों से देखता एक ज्ञान–पुरुष है । अस्तु । -अरुण कमल
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