- New product
546 vi Seat ki Stri
मीरांबाई के स्वप्न-पुरुष सांवरिया से लेकर आज तक सहचर के रूप में स्त्राी जिस पुरुष की कामना करती आई है, वह अमूमन स्त्राी-मन से सिक्त अर्धनारीश्वर में मूर्त होती हैµएक ऐसा मुकम्मल मनुष्य जिसमें ‘स्त्राीत्व’ की रचना करने वाले उदात्त मानवीय गुण भी हैं, और ‘पुरुषत्व’ का पर्याय बनती कत्र्तनिष्ठ आत्मनिर्भरता भी। लेकिन क्या लिंग के आधार पर मनुष्य को स्त्राी-पुरुष दो वर्गों में बांटना, और पिफर उनमें कुछ विशिष्ट गुणों का आरोपण कर उन्हें एक-दूजे से बिल्कुल अलग सि( करना बौ(िक-संवेदनशील प्राणी के रूप में हमारी अपनी मनुष्यता के ह्रास का प्रमाण नहीं? प्रस्तुत कहानी-संग्रह ‘546वीं सीट की स्त्राी’ की सभी कहानियां पितृसत्ता सहित समस्त सांस्कृतिक-भौतिक व्यवस्थाओं की अवांछित दखलंदाजी पर सवालिया निशान लगा कर जेंडर डिस्कोर्स को एक नया मोड़ देती हैं।
You might also like
No Reviews found.