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Aalochana Ka Sankat

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2018
978-93-87187-30-6

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आलोचना में बहुत स्वेच्छाचारी ढंग से, अपने हिसाब से नामों को लेने और छोड़ने की छूट नहीं होती । स्तर और प्रवृत्तियों के नाम पर किसी और कैसे भी चयन की छूट वहां एक सीमा तक ही मिल सकती है । जो लेखक अपनी अबाध निरंतरता और सक्रियता के साथ अपनी उपस्थिति बनाए रहा है उसे क्या आप इसलिए नकार देंगे कि वैचारिक दृष्टि से वह आपसे उग्र मतभेद रखता है ? जिसे सचमुच आलोचना का लोकतंत्र कहा जा सकता है, उस वैचारिक खुलेपन का सबसे बड़ा और खुला मंच हिंदी की मार्क्सवादी आलोचना रही है- अपनी सारी सीमाओं के बीच । उसका अधिकतर विकास इन बहसों और विवादों के माध्यम से ही हुआ । जब–तब विवादों की अकारण उग्रता ने उसे भारी क्षति भी पहुंचाई लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि उसमें उस तरह कथित रूप से विरोधियों के नामोल्लेख से बचने का कोई प्रयास हुआ हो । अपने समय की अच्छी उल्लेखनीय और संभावनाशील रचना का आप मूल्यांकन नहीं करेंगे, आलोचना में परिप्रेक्ष्यगत समग्रता की चिंता यदि आपकी चिंता नहीं होगी तो फिर आपकी उस आलोचना की विश्वसनीयता क्या होगी ? विश्वसनीयता से ही आलोचना की साख बनती है । इस विश्वसनीयता के अभाव मेें बड़े से बड़ा आलोचक और उसकी आलोचना निष्प्रभ और निष्प्रभावी हो जाती है । विश्वसनीयता के क्षरण की यह ढलान सीधे अवसरवाद की ओर जाती है । आलोचना को आभा और गमक नीति से मिलती है, रणनीति से नहीं । अच्छा और बुरा, सच और झूठ, लोक और सत्ता के द्वंद्व में आलोचना का अपना पक्ष चुनना ही होगा । जब आपने इस मूल दायित्व और कार्यभार को छोड़कर आलोचना दूसरे धंधों में फंस जाती है, वह अपनी एक खास चमक और गमक खो बैठती है । जब वह गुट–निर्माण, विश्वविद्यालयी सेमिनारों और विदेश यात्राओं के जुगाड़ में सिमट जाती है, वह संकट के बीच होती है ।

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Reviews
आलोचना का संकट" एक विचारोत्तेजक किताब है जिसने मुझे आलोचना को देखने का नजरिया बदलने पर मजबूर कर दिया। लेखक ने बहुत ही सलीके से आलोचना के सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं को उजागर किया है। यह किताब उन लोगों के लिए जरूर पढ़ी जानी चाहिए जो अपनी क्षमता का विकास करना चाहते हैं.
Ajay Sinha, Darbhanga