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Achha To Fir Theek Hai

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2016
978-93-82554-58-5

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सामाजिक मान्यताओं के बरक्स यथार्थ का चेहरा कुछ अलग ही होता है। विडंबनाओं के कारणभूत सत्य को देख पाने की दृष्टि और तद्जन्य अनुभूति की प्रगाढ़ता कामेश्वर की कहानियों को प्रासंगिकता का वह धरातल देती है कि देश और काल का सत्य अपने यथार्थ रूप में प्रकट होता है। बद्धमूल विचारधाराओं के इस दौर में बहुत-कुछ ऐसा छूट जाता है जिसे शामिल किये बिना जनवादी आकांक्षाओं का फलीभूत होना संभव नहीं। दमन और शोषण का सिलसिला बंद न होने के बावजूद दलित-शोषित और सवर्ण की भूमिकाओं में आ रहे बदलाव, राजनीति का छुटभइयापन और कल्याणकारी राज्य के अवशेषों को बचाने का छिट-पुट संघर्ष, मुक्ति का आस्वाद लेती नारी की बेबसी, मनुष्य का सहज शोषक स्वभाव और लहु की कीमत पर परिवार का पोषण। संत्रास, बेतुकेपन और विरोधाभासों को ये कहानियाँ न केवल उभारती हैं, बल्कि उनसे पार पाने की जद्दोजहद में जीवन को अर्थवत्ता प्रदान करती हैं।

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अच्छा तो फिर ठीक है" एक ऐसी कहानी है जो दिल को छू लेती है। पात्रों को आप अपना सा महसूस करते हैं और उनकी यात्रा का हिस्सा बन जाते हैं। कहानी हास्य, रोमांस और जीवन के उतार-चढ़ाव से भरपूर है। फिर भी, यह एक हल्की-फुल्की पढ़ाई है जो आपको मुस्कुराएगी और आपका मनोरंजन करेगी।
Sukhdev Singh, Mau