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Aise Jane Do

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2017
978-93-87145-06-1

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कितने सवेरे धीरे–धीरे तिरोधान हो रहे नक्षत्र सारे धीरे–धीरे लुप्त हो गई आकाश गंगा बैठे रहे मन ही मन जिसके किनारे वे जंगल, जंगल की पगडंडियों पर झूल रहे फूल दूर दूर तक देखा था जिन्हें कभी और जीते रहे ताउम्र दिवास्वपन से जिन्हे छूट चले हाथ से ये लोक निजी सिमट रहे चुपचाप उसके अन्त% फलक से कैसे होंगे वर्ष बाकी बिना इनके कोई बताये, श्वास चलेगी किसके सहारे ? सुनाई नहीं देता संगीत वह बस गया था जो नसों में ना ही कविताएं, न पात्र कथाओं के जो निकटतर रहे अपने सगों से । समय की गुब्बार उतर रही सब कुछ पर परत दर परत कौन जाने अब बचे कितने सबेरे ।

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