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Alka
कविवर पण्डित रामरतनजी अवस्थी अनुभवसिद्ध रचनाकार हैं । साहित्य की अनेक विधाओं में उनका कार्य है । ‘अलका’ शीर्षक से उन्होंने मेघदूत का छायानुवाद किया है, वह भी गद्यगीत शैली में । इस छायानुवाद को पढ़ते हुए यदि हम अवस्थीजी द्वारा प्राक्कथन में उठाये गये कुछ बिन्दुओं पर दृष्टि रखेंगे, तो बहुत–से पूर्वाग्रहों से बच जायेंगे । अवस्थीजी कहते हैंµ‘अनुवाद जहाँ अनुवादक को मूल रचना से बाहर जाकर अभिव्यक्ति की आजादी नहीं देता, वहीं वह भाषाई रूपान्तरण के अलावा अपने सृजन कर्म को कोई नवीनता नहीं प्रदान कर पाता । ––––मेरी मान्यता है कि अनुवाद की कुछ सीमाएँ हैं, जो अनुवादक की अभिव्यक्ति में अवरोधक सिद्ध होती हैं । दूसरी ओर छायानुवाद अभिव्यक्ति को अपेक्षाकृत अधिक स्वतंत्रता प्रदान करता हैµविशेषकर गद्यगीत के कलेवर में और भाव–निरूपण में ।’ इस क्रम में अवस्थीजी कई अन्य महत्त्वपूर्ण बातें भी कहते हैंµ‘गद्यगीत के स्वरूप को छायानुवादक आवश्यकतानुसार लघुता और गुरुता प्रदान कर सकता है । इसी प्रकार रचना में अन्तर्निहित भाव–साम्य को अधिक सौंदर्य प्रदान करने की दृष्टि से भी वह मूल रचना से इतर उपमाओं, उत्प्रेक्षाओं आदि के द्वारा अनुवाद को अलंकृत कर सकता है ।’ अवस्थीजी मौलिक रचनाकार हैं । इसलिए उनसे विशुद्ध अनुवाद की चाहना करना उनके भीतर के कवि के प्रति अन्याय होगा । भावनुवाद की पेशकश करके वैसे भी उन्होंने अपने कवि को पर्याप्त आकाश दे दिया है । अब देखना ये है कि कालिदास की भाव–यात्रा के साथ विचरण करते हुए अवस्थीजी का कवि ‘अलका’ शीर्षक से सृजित अपनी गद्यगीतियों में कितना प्राणवान हो सका है । काव्य–सृजन से जुड़े भावुक हृदय जानते हैं कि गद्यगीत लिखना, गीत रचने से कम कठिन नहीं है, फिर पूरी–पूरी कृति के भाव–लोक की दीप्ति को आत्मसात करके समान भाव–संवेदी कृति की रचना करना निश्चय ही एक चुनौतीपूर्ण कार्य था, जिसे अवस्थीजी ने पूर्णत% निभाया है ।
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