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Apna - Apna Astitva
एक शाम छोटी बेटी आयी तो उसने माँ को रद्दी जैसा बेतरतीब देखा तो पूछा, “तुम जीना नहीं चाहतीं ? अरे, तुम भी प्राणी हो । तुम्हें भी अपना शेष जीवन हँसते हुए खुशनुमा हाल में जीना चाहिए । तुम्हें पता नहीं कि पिता जी की पेंशन तीस हजार जमा होती है । नानी–नाना यानी तुम्हारे माँ–बाप ने तुम्हारे नाम पचास लाख जमा कर दिए हैं । तब तुम भिक्षुक नहीं । स्वयं सब देखो व दूसरों को अपने हाथ से जायज खर्च दो । पढ़ी–लिखी हो, तब भी तुम्हारे स्वाभिमान में काई क्यों लग गई ? देखो इन कबूतरों को, ये भी जीने के लिए तुम्हारे पास बैठे हैं । तुम क्यों खाली मन से रहती हो ?तुम्हें ही तुम्हारे घर में कबाड़ा बना दिया गया और तुम टुकड़ों पर खुश होती हो । क्या माँ, तुम्हें अपने अस्तित्व की पहचान नहीं रही ? यदि भैया से कुछ लेना नहीं चाहतीं तो हाथों से गरीबों को तो कुछ दे ही सकती हो न ।” राग ऊ–––ऊ–––कर जैसे ही बेटी को आलिंगन करने आगे बढ़ी तो उसने हटकर धिक्कारा, “माँ, अन्याय आदर्श नहीं । पिता की मनमानी सहकर तुमने परिवार व समाज को कोई नीतियाँ नहीं दीं और न ही अब बेटे–बहू की उपेक्षाएँ सहकर कोई नारियों के लिए इतिहास गढ़ रही हो । वृद्ध होना कोई पाप नहीं । किसी भी उम्र में व्यक्ति अपनी सहज जिन्दगी जी सकता है । बस थोड़ा संघर्ष व प्रयत्न चाहिए ।” और वह गुस्से से बाहर चली गई । राग स्तब्ध बैठी नन्हीं–नन्हीं तितलियों व गौरैयों को ऊँचे–ऊँचे उड़ती देखती रही । ‘हाँ, सच तो कहा है बिटिया ने जब इन चिड़े, चिड़ियों में जीने का हौसला, उमंग है तो वो क्यों नहीं आशा से जी सकती । भौतिक रूप से जब उसके अपनों ने उसकी पहचान छीनना प्रारम्भ किया है तो वो भी कहीं–न–कहीं किसी से जुड़ जिन्दगी में मायने भर देगी ।’ तभी उसने देखा कि एक प्यासी गिलहरी पानी पीने के लिए कबूतरों के डिब्बे के पास खिसक रही है लेकिन सामने दाना चुगते उन्हें देख भयभीत हो भागती–दौड़ती छुप जाती । ---इसी पुस्तक से