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Babul Ki Chhanv
हास्य–व्यंग्य का उद्देश्य पर्दे के पीछे के सत्य का उद्घाटन करना होता है । मुखौटों को नोंचकर खालिस चेहरा दिखाना होता है जिस पर दाग हैं । धब्बे हैं । कुटिलता है । धूर्तता है । इससे लोगों के भ्रम टूटते हैं और वे अधिक समझदारी और सावधानी से जीने लगते हैं । बबूल का पेड़ खुरदरी भूमि पर उगता है । उसे कोई नहीं लगाता । उसे कोई खाद पानी नहीं देता । वह तिरस्कृत सा खेत की मेड़ पर खड़ा रहता है । उसे कोई नहीं पूछता, उसे कोई नहीं पूजता । तपती धरती के बीच उसकी छाँव सुस्ताते डोर ढंगर की आसरा होती है । बबूल के काँटे पैने और बड़े होते हैं जो गड़ते हैं, तो पकते हैं फिर लौंकते हैं तो पिराते हैं । वहीं उसके सुन्दर सुन्दर पीले फूल मन को भाते हैं, लुभाते हैं । बबूल का पेड़ हमारे जीवन का प्रतीक है जिसके आसरे हम जीवन बिताते हैं । हम सब जेठ की तपिश से हलाकान हैं । हमें दूर दूर तक आंखों को ठंडक देने वाली हरियाली नजर नहीं आती । इस परिस्थिति में सघन छाँव की आस करना व्यर्थ सा लगता है । हम सब में सामाजिक विद्रूपताओं से जुझते हुए गहरी निराशा जन्म ले रही है । इस असहाय स्थिति में कौन किसका सहारा बने । इस दुविधा में समाज के ताने बाने बिखर रहे हैं । इन विपरीत परिस्थितियों में हमारे सामने बबूल का पेड़ खड़ा है । उसकी छितरी छितरी छाँव हमें लुभा रही है । उसके पीले पीले फूलों पर भंवरे जीवन का गीत गुनगुना रहे हैं । वहीं उसमें हमारी खुशियों को पंचर करने की सामर्थ्य रखने वाले काँटे भी हैं । सहजता से से आये इन सामाजिक परिदृष्यों का रूपांतरण ‘‘बबूल की छाँव‘‘ व्यंग्य लेख संग्रह में है जो इस निवेदन के साथ प्रस्तुत है ।
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