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Barish Aur Bhumi

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2016
978-93-82821-86-1

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‘‘आज जब धूप निकली थी अलस्सुबह धूप का रंग सुनहरा ही था हरसिंगार की नीली टहनियाँ सफेद फूलों से भर गयीं यह धूप की यात्रा है या सूर्य की भूगोल के ये प्रश्न अप्रासंगिक हैं मध्यान्ह तक धूप का रंग सफेद होने लगा है निर्जन रेगिस्तान में बेसुध दौड़ती प्यासी हवायें रेत की दीवार पर लिखती हैं अमिट इतिहास प्रत्येक यात्रा का गन्तव्य आवश्यक नही कुछ यात्रायें निर्बाध होती हैं धूप का रंग काला होने लगा है सूर्यास्त की लम्बी, काली परछाइयाँ जकड़ने लगी हैं धीरे––––धीरे––––धीरे–––––– लाल बर्फीली हवायें सघन हो गयीं हैं इतिहास स्वंय को दोहराता है पुनरावृत्ति में कुछ रंग आवश्यक तो नहीं ।’’ (‘बारिश और भूिम’ संग्रह से)

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