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Bazarvaad Aur Samkalin Kahaniyan

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2019
978-93-82554-56-1

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बाज़ार की अवधारणा वर्तमान संदर्भ में पहले से इतर ढंग से सामने आती है । जो बाज़ार पहले ज़रूरतों की पूर्ति की जगह होती थी आज वह एक संस्कृति बनकर फैल रहा है । ऐसी संस्कृति जो मुनाफे को जीवन का लक्ष्य बना देती है । इस बाज़ार में मूल्य और संवेदना का कोई महत्व नहीं होता, किसी भी आयाम से देखने पर यह लाभ ही देखना चाहता है । इसके लिए दृष्टि भी बदली जाती है । बाज़ार में मानव तक पण्य वस्तु है । मनुष्य और मनुष्य के बीच यहाँ कोई भी संबन्ध नहीं होता सिवाय क्रेता–विक्रेता के । बाज़ार के अनुसार मनुष्य या समाज का ढाँचा निर्मित किया जाता है । बाज़ार की पुष्टि के लिए उपभोग संस्कृति को बढ़ावा दिया जाता है । वह आनन्द की मरीचिका का निर्माण कर बाज़ार का निर्माण करती है । यह मरीचिका मनुष्य को गुलाम बनाकर उसे पण्य बना देती है । इस प्रकार आकर्षक छद्म रूप में बाज़ार मानव के मानस में घर कर जाता है । बाज़ार बाज़ारवाद को बढ़ावा देता है । जो नव उपनिवेशवादी सभयता का नया रूप है । बाज़ारवाद बाज़ारवादी नीतियों से ओतप्रोत है जो विविध आयामों से होता हुआ संपूर्ण दुनिया में व्याप्त होने लगता है । यहाँ मालिक–गुलाम का शब्द युग्म नये प्रकार से रूपायित होने लगता है । गुलामी की मानसिकता एक भिन्न और नये रूप से कायम होने लगती है । बाज़ार वहाँ पूँजीपति या साम्राजवादी’ वर्ग को एकजुट करता है, वहाँ समानता–स्वतंत्रता की सकल्पनायें दम तोडने लगती है । एक ओर यह तंत्र संपन्न देशों के विकास के लिए बनायी गयी कुटिल नीति है तो दूसरी ओर यह सब कुछ बाज़ार में तब्दील हो जाने की हकीकत है । वर्तमान सन्दर्भ में यह बाज़ार मनुष्य के हृदय और मस्तिष्क दोनों पर हस्तक्षेप कर एक विचारधारा के रूप में परिणत हो रहा है । जो अनन्तर समाज के भीतर मूल्यों के रूप में ढलने लगता है और इसे ग्रहण करनेवाले समाज की संस्कृति बाज़ार की संस्कृति हो जाती है ।

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